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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
( सवैया )
आतमा अनादि ग्यानवान कर्म छादित है,
इन्द्री मन-द्वार कछू मानै मतिग्यान है । मनक आलंबी सब्द - अर्थरूप श्रुतग्यान, मूरतीक अनू जानै अवधि बखान है ।। परमनोगत जानै सोई मनपरजै है,
सारै दरव जानै सो केवल प्रमान है। तीनों आदि मिथ्या उदै कुग्यान कहावे सुद्ध,
ग्यान कै जगत सारै मोख के निसान हैं ।। २९९ ।। (दोहा)
ग्यानावरन समान घन, छादित रविसम ग्यान । छयोपसम ज्यौं - ज्यौं लहत, त्यौं त्यौं प्रगटत भान ।। २२० ।। शुद्ध उपयोग व अशुद्धउपयोग के भेद से उपयोग दो प्रकार का है। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान ह्न ये पाँच भेद सम्यग्ज्ञान हैं तथा कुमति, कुश्रुति, कुअवधि ह्न ये तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान है ।
सामान्यतः तो आत्मा अनादि से ज्ञानवान है; परन्तु कर्मोदय वश इन्द्रिय व मन द्वारा वर्तमान में जितना क्षयोपशम ज्ञान प्राप्त है, वह श्रुतज्ञान है। मूर्तिक अणुओं का ज्ञान अवधि एवं परमनोगत मूर्तिक सूक्ष्म ज्ञान मन:पर्ययज्ञान है तथा लोकालोक को बिना इन्द्रिय मन के प्रत्यक्ष ज्ञान के केवलज्ञान कहते हैं।
इसी गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेवश्री कानजीस्वामी ज्ञानोपयोग के आठ नामों का उल्लेख करके कहते हैं कि ह्न तत्त्वार्थसूत्र में कहे अनुसार जो इन्द्रिय और मन के अवलम्बन से मतिज्ञान होना कहा है वह निमित्त की उपस्थिति बतलाने के लिए कहा है। वस्तुतः यदि इन्द्रियों से ज्ञान होता हो तो पुद्गल और जीव एक हो जाएँ । आत्मा में इन्द्रिय
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जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
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और मन का अभाव है। आत्मा का मतिज्ञान उपयोग आत्मा के क्षयोपशम से होता है, इन्द्रियों से नहीं होता।
इसीप्रकार शेष सात ज्ञानों की अपेक्षायें दर्शाई है, जो इस प्रकार है ह्र श्रुतज्ञान ह्न स्वभाव के आश्रय से चैतन्य के उपयोग का परिणाम श्रुतज्ञान है। यह भी शास्त्र आदि पर के कारण नहीं होता ।
प्रश्न ह्न जैसे शब्द पढ़ें वैसा ज्ञान होता है न ?
उत्तर ह्न शब्द और शास्त्र पुद्गलास्तिकाय है, जबकि यह जीवास्तिकाय के ज्ञानगुण के उपयोग का वर्णन है। उपयोग स्व की अस्ति में होता है, पर की अस्ति में नहीं होता। इसलिए शब्द, शास्त्र आदि संयोगों की रुचि छोड़कर तथा अपने को पर्याय जितना मानना छोड़कर त्रिकाली ज्ञानगुण से भरपूर स्वभाव की रुचि करे, तो धर्म होगा।
अवधिज्ञान ह्र व्यवहार से इन्द्रियों और मन के अवलम्बन बिना स्वर्ग-नरकादिरूप पदार्थों को मर्यादितपने से जानने को अवधिज्ञान कहते हैं । त्रिकाली चेतनागुण की उपयोगरूप अवस्था अवधिज्ञान की स्वयं होती है। वह किसी रूपी परपदार्थ के कारण नहीं होती। रूपी पदार्थों को जानना तो निमित्त मात्र होता है।
मन:पर्ययज्ञान ह्न सामनेवाले जीव के रूपी पदार्थ संबंधी मन में चिंतित विषय को जान लेना मन:पर्ययज्ञान है। वह अपने अन्तर का व्यापार है।
केवलज्ञान ह्र अपने असंख्यप्रदेशों से समस्त रूपी और अरूपी पदार्थों को एकसाथ, तीनों काल की पर्यायों सहित जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। वह अन्तर का व्यापार है।
पंचेन्द्रिय, मनुष्यपना, मजबूत संहनन अथवा चौथे काल के कारण केवलज्ञान नहीं होता। ये सब अनुकूल निमित्त हैं, उपादान नहीं, जबकि केवलज्ञान कार्य उपादान की योग्यता से होता है।
कुमतिज्ञान ह्र आत्मा के ज्ञानस्वभाव से ज्ञान नहीं मानकर राग और निमित्त से ज्ञान मानना कुमतिज्ञान है ।