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गाथा-४२
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पञ्चास्तिकाय परिशीलन कुश्रुतज्ञान ह्न जीव स्वयं कुश्रुतज्ञान करता है, वह अपनी अस्ति में अपने से होता है। मिथ्याचारित्र उसमें निमित्त मात्र होते हैं।
विभंगज्ञान ह्न आत्मज्ञान रहित रूपी पदार्थ, स्वर्ग-नरकादि को जानने के ज्ञान को विभंगज्ञान कहते हैं। अपने को स्वर्ग-नरकादि का कर्ता, राग का कर्ता और गुरु की कृपा से ज्ञान होना मानने जैसी विपरीत मान्यता वाले जीवों के रूपी पदार्थ जानने संबंधी ज्ञान को विभंगज्ञान कहते हैं। यह भी स्वयं की विपरीत समझ के कारण है, पर के कारण नहीं।
इसीप्रकार ज्ञान की पर्यायें अपने जीवास्तिकाय में अपने से होती हैं ह्र ऐसा ज्ञान करे तो पर से भिन्न पड़कर जिसमें से ज्ञानपर्यायें आतीं हैं ह्र ऐसे त्रिकाली चेतना के धारक आत्मस्वभाव के सन्मुख दृष्टि होना धर्म है।
स्वाभाविकभाव से यह आत्मा अपने समस्त प्रदेशव्यापी, अनंत निरावरण, शुद्ध ज्ञानसंयुक्त है। राग-द्वेष, दया, दानादि विकल्प आत्मा का स्वभाव नहीं है; आत्मा अखण्ड ज्ञानस्वभाव से भरा है। पर्याय में पड़ने वाले भेद जानने योग्य हैं; परन्तु वे भेद अंगीकार करने योग्य नहीं है। मात्र एक अखण्ड शुद्ध चैतन्यस्वभाव ही अंगीकार करने योग्य है।
संसारी प्राणी अनादि से कर्माधीन होकर हीन और अल्पज्ञ वर्तता है। स्वयं स्वभाव से भटककर कर्म के संग में पड़ा है, इसलिए अपनी हीनदशारूप परिणमित हुआ है। ज्ञानावरण कर्म से आच्छादित हुआ है ह्र ऐसा निमित्त की अपेक्षा से कहा जाता है।"
इसप्रकार इस ४१वीं गाथा में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने ज्ञानोपयोग के आठ भेद कहे। फिर आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने आठों की विस्तृत व्याख्या करके सब कुछ स्पष्ट कर दिया। आचार्य जयसेन ने उपर्युक्त कथन से विशेष कुछ नहीं कहा तथा गुरुदेवश्री ने वस्तुस्वातंत्र्य और निमित्तनैमित्तक संबंधों को स्पष्ट करते हुए कर्मोदय की अपेक्षा का खूब खुलासा करके समझाने का पूर्ण सफल प्रयत्न कर सबकुछ स्पष्ट कर दिया। .
विगत गाथा में ज्ञानोपयोग के आठ भेदों के साथ अर्थ- ग्रहणरूप शक्ति, पुनः पुनः चिन्तनरूप भावना और जानने के व्यापाररूप उपयोग की चर्चा की।
अब ४२वीं गाथा में दर्शनोपयोग का स्वरूप और उसके भेद कहते हैं। दसणमविचक्खुजुदंअचक्खुजुदमविय ओहिणा सहियं । अणिधणमणंतविसयं केवलियं चावि पण्णत्तं ।।४२।।
(हरिगीत) निराकार दरश उपयोग में सामान्य का प्रतिभास है। चक्षु-अचक्षु अवधि केवल दर्श चार प्रकार हैं ।।४२।। दर्शन भी चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन के भेद से चार प्रकार का है।
टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र चारों दर्शनोपयोगों की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि आत्मा वास्तव में सर्व (अनन्त) आत्मप्रदेशों में व्यापक, विशुद्ध दर्शन सामान्यस्वरूप है।
(१) दर्शनोपयोग ह्र अनादि दर्शनावरण कर्म से आच्छादित प्रदेशों वाला वर्तता हुआ चक्षुदर्शन के आवरण के क्षयोपशम से और चक्षुइन्द्रिय के आलम्बन से आत्मा जो मूर्तद्रव्य का विकल्परूप से सामान्यावलोकन करता है, वह चक्षुदर्शन है।
(२) उसीप्रकार अचक्षुदर्शन के आवरण के क्षयोपशम से तथा चक्षु दर्शन के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों और मन के अवलम्बन से आत्मा जो मूर्त-अमूर्त द्रव्य को विकल्परूप से सामान्यतः अवबोधन करता है, वह अचक्षुदर्शन है।
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१.श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. १३४, पृष्ठ १०५४, दिनांक ४-३-५२