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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
और धर्मद्रव्य के अभाव के कारण लोकांत में चेतना में विलास करते हुए विराजते हैं।
शुद्ध ज्ञान-दर्शन में लोकालोक भासित होते हैं, अनन्तकाल तक अतीन्द्रियसुख को भोगते हुए निरावाद एकरूप सिद्धलोक के वासी हैं।
गुरुदेवश्री कानजी स्वामी इस गाथा पर प्रवचन करते हुए हमारा ध्यान निम्न बातों की ओर विशेष आकर्षित करते हुए कहते है कि “वे सिद्ध परमात्मा प्रथम अमर्यादित स्वाभाविक-स्वाधीन सुख को प्राप्त हुए हैं। लोकान्त के आगे धर्मद्रव्य का अभाव है, इसकारण जीव लोकाग्र में रहता है ह्न ऐसा कहा है; परन्तु यह व्यवहारनय का कथन है; वस्तुतः जीव की योग्यता भी लोक में रहने की ही है। तीसरी बात ह्न सिद्ध भगवान को अपने चैतन्य की निर्मल दशारूप उपयोग है। ज्ञान दर्शन और आनन्द जो आत्मा का त्रिकाल स्वभाव है, वह सिद्धों को अतीन्द्रिय सुख पर्याय के रूप में प्रगट हो गया है।
सिद्ध भगवान को समस्त आत्मिक शक्तियों की सामर्थ्य प्रगट हुई है, इसलिए प्रभुत्वशक्ति पर्याय में भी प्रगट हो गई है। भगवान को जो तीन लोक का नाथ कहा, वह तो तीन लोक के ज्ञाता होने की अपेक्षा से कहा है।"
जीव अनादिकाल से संसार में विभाव पर्याय के कारण आकुलता करके उस आकुलता को भोगता था । चैतन्यस्वभाव के अनन्त आनन्द के अवलम्बन से उस भगवान आत्मा को आकुलता का अभाव हो गया है और जो सहज - स्वाधीन चैतन्यस्वरूप प्रगट हुआ है, वह अनन्तकाल ऐसा का ऐसा रहेगा ।
इसप्रकार इस गाथा में विविध आयामों से सिद्ध के स्वरूप का कथन करके सिद्धपद के साधकों को सन्मार्गदर्शन दिया गया है।
१. श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. १२०, पृष्ठ ९७५, दिनांक २०-२-५२
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गाथा - २९
विगत गाथा में कहा है कि कर्म से विमुक्त आत्मा सर्वज्ञत्व एवं सर्वसदर्शित्व के साथ अनन्त सुख को प्राप्त करता है।
अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्न कर्ममल से मुक्त आत्मा सिद्ध होकर अतीन्द्रिय सुख का अनुभव करता है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र कम्ममलविप्पमुक्को उड्ढं लोगस्स अन्तमधिगंता ।
सो सव्वणाणदरिसी लहदि सुहमणिंदियमणंतं ।। २९ । । (हरिगीत)
आतम स्वयं सर्वज्ञ समदर्शित्व की प्राप्ति करे ।
अ स्वयं अव्याबाध एवं अतीन्द्रिय सुख अनुभवे ।। २९ ।।
वह चेतयिता स्वयं सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता हुआ स्वकीय अमूर्त अव्याबाध अनंतसुख को प्राप्त करता है।
आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि इस गाथा में सिद्ध के निरुपाधि ज्ञान, दर्शन और सुख का समर्थन है ।
ज्ञान, दर्शन और सुखस्वभावी आत्मा की आत्मशक्ति संसारदशा में अनादि कर्म-क्लेशों के निमित्त से संकुचित हो जाती है, इसकारण वह इन्द्रियों द्वारा क्रमश: कुछ-कुछ जानता है और इन्द्रियाधीन सुख का अनुभव करता है; किन्तु जब उसके सिद्धावस्था में समस्त कर्मक्लेश विनष्ट हो जाते हैं, तब पूर्ण आत्मशक्ति प्रगट होने से आत्मा पूर्ण स्वाश्रित, अव्याबाध और अनन्तसुख का अनुभव करता है। इसलिए स्वयमेव अपने जानने-देखने के स्वभाव वाले तथा स्वकीय सुख का अनुभव करनेवाले सिद्धों को पर से कुछ भी प्रयोजन नहीं है।
जयसेनाचार्य की टीका में सर्वज्ञ का निषेध करनेवाले चार्वाक मतानुयायी से पूछा गया है कि ह्र तुम जो यह कहते हो कि ह्न गधे के सींग