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पञ्चास्तिकाय परिशीलन चौथी बात यह है कि ह्न द्रव्य सर्वदा भूतपर्यायपने अभाव्य है अर्थात् न होने योग्य है।
पाँचवीं बात यह है कि ह्र द्रव्य अन्य द्रव्यों से सदा शून्य है अर्थात् एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का सर्वथा अभाव है।
छठवीं बात यह है कि ह्न द्रव्य स्वद्रव्य से सदा अशून्य है।
सातवीं बात यह है कि किसी द्रव्य में अनन्त ज्ञान है और किसी में सान्त ज्ञान है।
आठवी बात यह है कि किसी में अनन्त अज्ञान और किसी में सान्त अज्ञान है।
यह सब अन्यथा घटित न होने से मोक्ष में जीव में उक्त सभी बातों के सद्भाव को प्रगट करता है।
आचार्य जयसेन इसी गाथा की टीका करते हुए कहते हैं कि ह्न सिद्ध अवस्था में जीव टंकोत्कीर्ण ज्ञायकरूप द्रव्य की अपेक्षा अविनश्वर होने से शाश्वत स्वरूप है तथा पर्यायरूप से अगुरुलघुकगुण की षट्स्थानगत हानि-वृद्धि की अपेक्षा उच्छेद रूप है । निर्विकार चिदानन्द एक स्वभावमय परिणाम से होना-परिणमना भव्यत्व है। अतीत (नष्ट) हो गये मिथ्यात्वरागादि विभाव परिणाम से नहीं होना परिणमना अभव्यत्व है। स्वशुद्धात्म द्रव्य से विलक्षण पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप परचतुष्टय से नास्तित्व है, शून्य है। निज परमात्मा संबंधी स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल भावरूप से इतर अर्थात् अशून्य है। समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायों को एक समय में प्रकाशित करने में समर्थ सकल-विमल केवलज्ञान से विज्ञानरूप है, नष्ट हुए मतिज्ञानादि छमस्थ ज्ञान द्वारा परिज्ञान रहित हो जाने के कारण अविज्ञानरूप है।
मोक्ष में जीव का सद्भाव न मानने पर नित्यत्व आदि आठ गुणस्वभाव घटित नहीं हो सकते हैं, जबकि अस्तित्व से ही मोक्ष में जीव का सद्भाव जाना जाता है।
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
इसप्रकार भट्ट और चार्वाक मतानुसारी शिष्य के संदेह का नाश करने के लिए जीव के अभूतत्व स्वभाव को बताया है। इसी भाव को कवि हीरानन्दजी इसप्रकार कहते हैं ह्र
(सवैया इकतीसा) दरव निजरूप” सासुता सदीव लसै,
परजै अनेक प्रतिसमै समै छेदिए। सदा भूत परजैसों भाव्य नाम पावै सदा,
परजै अभूतसों अभाव्य नाम वेदिए।। परकै सरूप सुन्न अपने असुन्न जीव,
कहूँ है अनन्तग्यान कहूँ सांत देखिए। कहूँ स्वल्प अनल्प कहूँ सान्त औ अजान कहूँ,
ऐसा सब भेद एक जीव सत्ता भेदिए ।।२००।। द्रव्य निज स्वरूप से अर्थात् द्रव्यदृष्टि से सदैव शाश्वत शोभायमान होता है तथा पर्याय दृष्टि से प्रतिसमय नष्ट एवं उत्पन्न होता है। होनेवाली पर्याय की अपेक्षा उसे भव्य एवं न होनेवाली पर्यायों की अपेक्षा उसे अभव्य कहते हैं। पर में स्व की नास्ति की अपेक्षा शून्य और अपने स्वरूप में वही जीव अशून्य है। जीव किसी अपेक्षा अनन्त ज्ञानवान है
और किसी अपेक्षा सान्त है। किसी अपेक्षा अल्प और किसी अपेक्षा अनल्प है। किसी अपेक्षा भव्य और किसी अपेक्षा अभव्य है। जीव की सत्ता में यह सब भेद और अभेद हैं।
इस गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “इस गाथा में मुक्तावस्था में जीव का सर्वथा अभाव माननेवाले अनित्य एकान्त पक्ष के धारक बौद्धमतानुयायी जीवों को समझाने के लिए कहा है कि वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। जिस जीव ने उत्कृष्ट पुरुषार्थ करके मुक्तदशा प्रगट की हो और उसकी भिन्न सत्ता का सर्वथा अभाव हो जाये ह्र ऐसा नहीं हो सकता।
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