________________
११५
११४
पञ्चास्तिकाय परिशीलन सदेह प्रमाण है। कर्म संयोग से संसारी के विविध भेद हैं, मुक्तावस्था में अविकारी होने से शुद्ध है।
जो कुवादि मिथ्यामती सर्वज्ञ को नहीं मानते, उनके लिए जैनधर्म के मर्मज्ञ उपर्युक्त स्वरूप बताते हैं।
गुरुदेवश्री कानजीस्वामी ने उक्त गाथा को स्पष्ट करते हुये कहा है कि ह्र “नय विवक्षा से कहें तो शुद्ध निश्चयनय से आत्मा त्रिकाल चैतन्यप्राणों से ही जीता है। अशुद्ध निश्चयनय से क्षयोपशम भावरूप प्राणों से जीता है। इन्द्रियाँ और मन आत्मा का स्वरूप नहीं है। आत्मा का यथार्थ प्राण तो चैतन्य है, जिससे वह कभी पृथक नहीं होता।
जीव को चेतयिता कहा है सो निश्चय से जीव पदार्थ चेतन गुण संयुक्त है, गुण व गुणी दोनों अभेद हैं। ___ अज्ञानी को ऐसा लगता है कि मेरा रागादि के बिना नहीं चलता; परन्तु आत्मा अनंत काल से चेतना द्वारा ही टिका है। गुण-गुणी भेद भी व्यवहार से है। रागादि भाव तो उपाधि है, वह आत्मा का स्वरूप ही नहीं है। चेतनागुण व उपयोग को यहाँ एक ही पर्यायवाची के रूप में कहा है।
आत्मा उपयोग लक्षित है ह्न यहाँ प्रश्न हो सकता है कि चेतना और उपयोग में क्या अन्तर है ?
इस प्रश्न का उत्तर यह है कि ह्र आत्मा त्रिकाली द्रव्य है और चेतना उसका त्रिकाली गुण है तथा उपयोग उसकी पर्याय है। चेतना के परिणाम को उपयोग कहा है। उपयोग परिणति रूप है। चेतना का अर्थ यहाँ कर्मचेतना और कर्मफलचेतना आदि नहीं है। ज्ञानचेतना कर्मचेतना आदि तीन भेद तो पर्यायरूप हैं और यह चेतना तो त्रिकाली गुणरूप है। ध्यान रहे, उपयोग चेतना की पर्याय है।
आत्मा प्रभु है इस विषय में विशेष बात यह है कि आत्मा अपने प्रभुत्व गुण के कारण स्वभाव से तो प्रभु है ही, विकार भी कर्म के कारण नहीं होते, विकार करने में भी आत्मा प्रभु है। जीव स्वयं की योग्यता से
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) ही अपनी बंध-मोक्ष की पर्यायरूप परिणत होता है, अत: वह प्रभु है।
समयसार की ४७ शक्तियों में प्रभुत्वशक्ति की चर्चा में त्रिकाली स्वभाव की बात है और यहाँ पर्याय में प्रभुता प्रगट करने की अपेक्षा प्रभु कहा है। आत्मा स्वयं ही सम्यग्दर्शन आदि निर्मलपर्याय को करने कारण प्रभु भी है। इसीप्रकार आत्मा के कर्ता, भोक्ता, सदेहप्रमाण, अमूर्तत्त्व तथा कर्मसंयुक्तता है।
आत्मा वास्तव में अपने विभावभावों का तथा व्यवहारनय से पौद्गलिक कर्मों का कर्ता है।
अशुद्ध निश्चय से जीव अपने सुख-दुःख आदि परिणामों का भोक्ता है और व्यवहार से शुभाशुभ कर्मों के निमित्त से प्राप्त इष्टानिष्ट सामग्री का भोक्ता है।
वस्तुतः आत्मा लोकप्रमाण असंख्यातप्रदेशी है और व्यवहार से नामकर्म के निमित्त से प्राप्त छोटे-बड़े शरीर प्रमाण है, इसलिये स्वदेह परिमाण है।
यद्यपि आत्मा व्यवहारनयसे पुद्गल कर्म के संयोग से मूर्तिक कहलाता है; परन्तु वास्तव में वह अमूर्तिक ही है।
निश्चयनय से आत्मा अपने ही अशुद्धभावों से सहित है। व्यवहारनय से अशुद्धभावों का निमित्त पाकर बंधनेवाले नूतन कर्मों से भी सहित
____ इसप्रकार प्रस्तुत गाथा में आत्मा का वर्णन करते हुए बताया है कि - निश्चय से आत्मा चेतना शक्ति से युक्त भाव प्राण वाला है तथा व्यवहार से संसारावस्था में जीव द्रव्य प्राणों का धारक करता है, इसलिए जीव है, चेतयिता है, उपयोग लक्षित है, प्रभु है, भोक्ता है, देह प्रमाण है, इसतरह शुद्ध-अशुद्धनय के अनुसार ही संसारी जीव का कथन है।
(66)
१.श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, नं. १२०, पृष्ठ ९५३, दिनांक २७-२-५२