________________
पञ्चास्तिकाय परिशीलन
प्रत्येक गाथा में तीन समय लागू पड़ते हैं ह्र १. शब्द समय, २. ज्ञान समय, और ३. पदार्थ समय। जिन शब्दों के निमित्त से आत्मज्ञान होता है, वे शब्द ही शब्द समय हैं। जो आत्मा का यथार्थ ज्ञान हुआ वह ज्ञान ही ज्ञान समय और जिस जीव को आत्मा का ज्ञान हुआ है, वह पदार्थ समय है।
१२६
उपर्युक्त जड़ द्रव्यप्राण, क्षयोपशमरूप भावप्राण और चैतन्य सत्तास्वरूप शुद्ध प्राणों से भरा-पूरा जीवद्रव्य पदार्थ समय है। इस जीवद्रव्य नामक पदार्थ में द्रव्य-गुण- पर्याय तीनों आ गये। इन तीनों को यथार्थ जाननेवाला आत्मा ही वस्तुतः ज्ञानसमय है और इसे बतलानेवाला शब्दसमय है।
इसप्रकार इस गाथा में जड़प्राणों का निमित्तपना, पर्याय का खण्डखण्डपना और द्रव्य का अखण्डपना बतलाया है। "
मोक्षदशा में जीव केवल शुद्ध चैतन्यादि प्राणों से जीता है, इसलिए सिद्ध जीव को शुद्ध जीव कहते हैं। संसारी जीव को अशुद्ध जीव कहते हैं; क्योंकि उसके साथ अभी क्षयोपशम भावप्राण और द्रव्यप्राणों का साथ है। जो जीव इसप्रकार वस्तुस्वरूप को समझकर शुद्धात्मा का आश्रय लेता है, उसका संसार अल्प रह जाता है। यही इस गाथा का मूल
तात्पर्य है ।
१. श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. ११६, पृष्ठ ९९७, दिनांक ४-३-५२
(72)
गाथा - ३१-३२
विगत गाथा में कहा है कि शुद्ध जीव शुद्ध चेतनारूप भावप्राणों से तथा संसारी जीव अशुद्ध चेतनारूप भावप्राणों से एवं द्रव्यप्राणों से त्रिकाल जीवित रहते हैं।
अब प्रस्तुत दो गाथाओं में कहते हैं कि ह्न प्रत्येक जीव अगुरुलघुक स्वभाव से परिणमित हैं तथा अनंत जीव संसारी एवं अनन्त जीव सिद्ध हैं। मूलगाथा इसप्रकार है ह्र
अगुरुलगा अणंता तेहिं अणंतेहिं परिणदा सव्वे । देसेहिं असंखादा सिय लोगं सव्वमावण्णा ।। ३१ ।। केचित्तु अणावण्णा मिच्छादंसणकसायजोगजुदा । विजुदा य तेहिं बहुगा सिद्धा संसारिणो जीवा ।। ३२ ।। (हरिगीत)
अगुरुलघुक स्वभाव से जिय अनन्त गुण मय परिणमें। जिय के प्रदेश असंख्य पर जिय लोकव्यापी एक है ॥ ३१ ॥ बन्धादि विरहित सिद्ध आस्रव आदि युत संसारि सब । संसारि भी होते कभी कुछ व्याप्त पूरे लोक में ||३२|| सर्व जीव अपने-अपने अनन्त अगुरुलघुक गुणांशों के रूप से परिणमित हैं। प्रत्येक जीव के वे अगुरुलघुक गुणांश असंख्यात प्रदेशवाले हैं। वे कथंचित् समस्त लोक में व्याप्त होते हैं और कथंचित् स्वदेह प्रमाण ही रहते हैं।
अनेक (अनन्त) जीव मिथ्यादर्शन, कषाय एवं योग सहित संसारी हैं। और अनेक (अनन्त) जीव मिथ्यादर्शन कषाय योग रहित सिद्ध हैं।
टीका में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि प्रत्येक जीव का स्वाभाविक प्रमाण अनंत है अर्थात् जीव को अगुरुलघुत्व स्वभाव अर्थात् अविभागी परिच्छेदों के स्वभाव से देखें तो प्रत्येक जीव अनंत अंशवाले होते हैं,