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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
गुरुदेवश्री कानजीस्वामी अपने प्रवचन में उक्त गाथा के रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहते हैं कि ह्न “जैसे आत्मा है, वैसे ही काला भी हैं, यद्यपि कालाणु आत्मा जैसे ज्ञान व आनन्द आदि भाव नहीं हैं, तथापि कालद्रव्य षट्गुणी हानि - वृद्धिरूप अगुरुलघुगुण संयुक्त है, अमूर्त है तथा परद्रव्य के परिणमन में निमित्त है।
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काला पदार्थ अरूपी है, उसमें वर्णादि गुण नहीं हैं, परन्तु वह वस्तु तो है। पुद्गल का जैसा स्वभाव है, काल का वैसा स्वभाव नहीं है। इसकारण कालाणु स्कन्धरूप नहीं होते।
प्रश्न : अलोकाकाश में काल द्रव्य नहीं है तो आकाश की परिणति किस प्रकार होती है, अर्थात् अलोकाकाश के परिणमन में निमित्त कारण कौन है ?
उत्तर : आकाश द्रव्य अखण्ड हैं, अतः लोकाकाश में स्थित काल द्रव्य अलोकाकाश के परिणमन में भी निमित्त होता है। लम्बे बाँस के उदाहरण से इसप्रकार समझाया जा सकता है कि ह्न जैसे बांस के नीचे के भाग को हिलाने से ऊपर का भाग स्वयं हिलता है, उसीतरह लोकाकाश में स्थित काल द्रव्य अलोकाकाश के परिणाम में निमित्त बनता है । "
हीरानन्दजी के पद्यों का सामान्यार्थ सम्पूर्ण पद्यों के बाद दे दिया गया है। सम्पूर्ण गाथा का सुगम है, अतः विशेष स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, नं. ११८, पृष्ठ ९४८, दिनांक १७-२-५२
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गाथा - २५
विगत गाथा में यह कह आये हैं कि निश्चय कालद्रव्य पुद्गल के गुणों से रहित है तथा अगुरुलुघक, अमूर्त और वर्तना लक्षणवाला है। प्रस्तुत गाथा में व्यवहारकाल का स्वरूप कहते हैं ह्र
मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
समओ णिमिसो कट्टा कला य णाली तदो दिवारत्ती । मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति कालो परायत्तो ।। २५ ।। (हरिगीत)
समय-निमिष-कला-घड़ी दिनरात मास ऋतु - अयन । वर्षादि का व्यवहार जो वह पराश्रित जिनवर कहा ॥ २५ ॥ समय, निमिष, काष्ठा, कला, घड़ी, अहोरात्र, मास, ऋतु, अयन और वर्ष आदि हैं, वे पराश्रित होने से व्यवहार हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र टीका में 'पराश्रितपने' के स्पष्टीकरण में कहते हैं कि ह्न “व्यवहारकाल का माप दर्शाने की अपेक्षा व्यवहारकाल में पराश्रितपना है। जैसे ह्न 'समय' को परिभाषित करने के लिए पुद्गल परमाणु का सहारा लिया है। यद्यपि 'समय' के अस्तित्व के लिए परद्रव्य रूप परमाणु की जरूरत नहीं है; परन्तु 'समय' किसे कहते हैं ह्न यह बताना हो तो कहना पड़ेगा कि “एक पुद्गल परमाणु को अपनी मन्दगति से गमन करते हुए एक आकाशप्रदेश से निकटवर्ती दूसरे आकाश प्रदेश तक पहुँचने में जितना काल लगता है, वह 'समय' है।
इसतरह 'समय' परमाणु के गमन के आश्रित है, 'निमिष' आँख मिचने के आश्रित है; निमिष की अमुक संख्या से काष्ठा, कला और घड़ी होती है। दिन-रात सूर्य के गमन के आश्रित हैं; दिन-रात की संख्या से मास, ऋतु, अयन और वर्ष होते हैं।