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गाथा-२४
पञ्चास्तिकाय परिशीलन जैसे ह्र कोई वस्तु आज नई है, वह कल पुरानी है, इससे सिद्ध होता है कि कोई व्यवहारकाल है और व्यवहारकाल का आधार निश्चय कालद्रव्य है।
शास्त्र में सत् पद प्ररूपणा आती है अर्थात् शब्द है तो उसका वाच्य न हो ह्र ऐसा नहीं होता। कोई कह सकता है कि 'गधे का सींग' यह पद तो है, परन्तु इसका वाच्य पदार्थ नहीं है। अरे भाई ! 'गधे का सींग' यह पद नहीं वाक्य है। पद तो 'गधा' है और 'सींग' है। इन दोनों पदों के वाच्य पदार्थ भी हैं। इसीप्रकार जब 'काल' पद है तो उसका वाच्य कालद्रव्य भी है।
इसप्रकार जीव और पुद्गल आदि के परिणमन द्वारा कालद्रव्य सिद्ध होता है। इनके परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। जीव और पुद्गल के परिणाम नैमित्तिक हैं और कालद्रव्य निमित्त है। दोनों एकसाथ हैं, आगेपीछे नहीं। यह संबंध न केवल अशुद्धता में होता है, बल्कि शुद्धता में भी होता है। जैसे कि ह्र केवलज्ञान नैमित्तिक और कालद्रव्य निमित्त ह्र ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध भी है न! जगत में छहों द्रव्यों में जो-जो पर्यायें होती हैं, उन सबमें कालद्रव्य निमित्त है।" । ___इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्ददेव से लेकर गुरुदेव श्री कानजीस्वामी तक के कथनों से यह सिद्ध हुआ कि ह्र जो पर्याय स्वयं की योग्यता से परिणमित न होती हो, उसे तो कालद्रव्य परिणमित नहीं करा सकता, किन्तु जो-जो द्रव्य स्वयं की स्वतंत्र योग्यता से जब जिस पर्यायरूप परिणमित होती है, उसमें उस समय घड़ी, घंटारूप व्यवहारकाल और निश्चयकाल निमित्त होता ही है।
पिछली गाथा में यह कह आये हैं कि यद्यपि कालद्रव्य अस्तिकायरूप से अनुक्त है, तथापि उसे पदार्थपना तो है ही; क्योंकि वह भी एक स्वतंत्र द्रव्य है और वह सभी द्रव्यों के परिणमन में निमित्त होता है। प्रस्तुत गाथा में कालद्रव्य का स्वरूप कहते हैं, जो इसप्रकार है ह्न ववगदपणवण्णरसो ववगददोगंधअट्ठफासो य। अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालो त्ति ।।२४।।
(हरिगीत) रस-वर्ण पंचरु फरस अठ अर गंध दो से रहित है।
अगुरुलघुक अमूर्त युत अरु काल वर्तन हेतु है।।२४|| कालद्रव्य पाँच वर्ण और पाँच रस तथा दो गंध एवं आठ स्पर्श से रहित है तथा अगुरुलघु, अमूर्त और वर्तना लक्षणवाला है।
उक्त गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा नहीं लिखी गई। सीधा भावार्थ में कहा गया है कि ह्र लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में एकएक कालाणु अर्थात् कालद्रव्य स्थित है। वह कालाणु अर्थात् कालद्रव्य निश्चयकाल है। अलोकाकाश में कालद्रव्य नहीं है।
कालाणु (निश्चय कालद्रव्य) अमूर्त होने से सूक्ष्म है, अतीन्द्रियज्ञान ग्राह्य है और षट्गुण हानि-वृद्धि सहित अगुरुलघुत्व स्वभाववाला है। काल का लक्षण वर्तना हेतुत्व है, जिसप्रकार स्वयं घूमने की क्रिया करते हुए कुम्हार के चाक को कीलिका सहकारी है, उसीप्रकार स्वयमेव परिणाम को प्राप्त जीव पुद्गलादि द्रव्यों को (व्यवहार से) कालाणुरूप निश्चयकाल बहिरंग निमित्त है।
प्रश्न :- अलोकाकाश में कालद्रव्य नहीं है तो वहाँ आकाश की परिणति किस प्रकार हो सकती है?
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१.श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. ११६, पृष्ठ ९४२, दिनांक १६-२-५२