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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
जैसे गाँठों के अभाव से बांस का अभाव नहीं होता, उसी तरह पर्यायों में द्रव्य समाहित हैं। द्रव्य एक तथा नित्य है, पर पर्यायें अनेक हैं। इस तरह वस्तुस्वरूप नय सापेक्ष है।
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गुरुदेवश्री कानजीस्वामी उक्त विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ह्न “मनुष्य पर्याय का व्यय होता है और देवपर्याय का उत्पाद होता है' ह्र यह कथन कर्म के निमित्त से आत्मा में होनेवाली विभाव पर्याय की अपेक्षा से सत्य है। इससे यह सिद्ध हुआ कि ध्रुवपने की अपेक्षा से जो जीव मरता है, वही जीव उत्पन्न होता है और उत्पाद-व्यय की अपेक्षा से मरता मनुष्य है और उपजता देव है। पर्याय दृष्टि से भव बदल जाने पर सब संयोग बदल जाते हैं; इसलिए ऐसा कहने में आता है कि 'जीव उत्पन्न होता है।' वस्तुतः तो द्रव्य नया उत्पन्न नहीं होता । "
इसप्रकार जीवद्रव्य त्रिकाली अविनाशी एक है, उसमें क्रमवर्ती बांस की पोरों की भाँति देव, मनुष्यादि अनेक पर्यायें हैं। सभी भव एकसाथ नहीं होते, क्रम से ही होते हैं। उनमें जीवद्रव्य त्रिकाल रहता है, इसप्रकार आत्मा को अनेक भव की अपेक्षा अनेक भी कहा जाता है और अन्यअन्य पर्यायों की अपेक्षा अन्य अन्य भी कहा जाता है, परन्तु द्रव्य की अपेक्षा सत् का कभी विनाश नहीं होता और असत् का कभी उत्पाद नहीं होता ह्र यही इस गाथा का विषय है।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, नं. ११२, पृष्ठ ९१५, दिनांक ११-२-५२
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गाथा - २०
पूर्वोक्त गाथा में कहा है कि ह्न यद्यपि द्रव्यापेक्षा सत् का विनाश और असत् का उत्पाद नहीं होता तथापि पर्याय की अपेक्षा देव जन्मता है, मनुष्य मरता है। निमित्तरूप से देवगति एवं मनुष्य गति नामकर्म का उदय भी होता है।
अब प्रस्तुत गाथा में सिद्ध होने की प्रक्रिया कहते हैं मूलगाथा इस प्रकार है ह्र
णाणावरणादीया भावा जीवेण सुट्ठ अणुबद्धा । तेसिमभावं किच्चा अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो ||२०|| (हरिगीत)
जीव से अनुबद्ध ज्ञानावरण आदिक भाव जो । उनका अशेष अभाव करके जीव होते सिद्ध हैं ॥ २० ॥ ज्ञानावरणादि भाव जीव के साथ भलीभांति अनुबद्ध हैं, उनका अभाव करके जीव सिद्ध होता है।
आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं ह्न “सिद्धपर्याय सर्वथा असत् का उत्पाद नहीं है। अभी तक संसार अवस्था में मनुष्य- देव आदि की जो भी पर्यायें होती थीं, उन सबमें ज्ञानावरणादि कर्मों का उदय निमित्तरूप से रहता था, अब कर्मों के अभावरूप जो सिद्ध पर्याय हुई, वह सर्वथा असत् का उत्पाद नहीं हुआ। संसारी पर्यायें कर्मों के साथ-साथ होती थीं, सिद्धपर्याय कर्मों के अभाव से हुई। जीव तो जो संसार दशा में था, वही है। अतः कर्मों के अभाव से उत्पन्न हुई सिद्धपर्याय का सर्वथा प्रकार से असत् का उत्पाद नहीं है; क्योंकि आत्मवस्तु तो अनादि से है और द्रव्यदृष्टि से शुद्ध ही है; परन्तु पर्याय में अशुद्धता थी । आत्मा अनादि से ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के निमित्त से स्वयं राग-द्वेष-मोह के