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पञ्चास्तिकाय परिशीलन अन्य धर्म की अपेक्षा से अस्ति-नास्तिरूप है। ४. किसी चौथी अपेक्षा से वचनगोचर नहीं है, अतः अवक्तव्य है। ५. किसी पाँचवीं अपेक्षा से अस्तिरूप अवक्तव्य है। ६. किसी छठवीं अपेक्षा सेनास्तिरूप अवक्तव्य है और ७. किसी सातवीं अपेक्षा से अस्ति-नास्तिरूप अवक्तव्य है।
वीतरागदेव ने अनन्तधर्मात्मक द्रव्य के स्वरूप को बतलाने के लिए सप्तभंगी का यह स्वरूप कहा है।"
इसप्रकार न केवल जन साधारण में बल्कि जैनेतर दार्शनिकों में भी जैनदर्शन के इस अद्वितीय, वस्तुस्वरूप के यथार्थ प्रतिपादक अनेकान्त सिद्धान्त और स्यावाद शैली के संबंध में बहुत भारी भ्रान्ति है।
अधिकांश समाज सुधारक राष्ट्रीय एकता के पक्षधर व्यक्ति अनेकान्त और स्याद्वाद की व्याख्या समन्वयवाद के रूप में करते हैं, जो कहनेसुनने में तो अच्छी लगती है; परन्तु अनेकान्त और स्याद्वाद दर्शन वस्तुतः दो परस्पर विरोधी विचारों में समझौता करानेवाला दर्शन नहीं है; क्योंकि समझौते में सौदेबाजी होती है, उसमें दोनों पक्षों को झुकना पड़ता है, अपने-अपने विचारों से थोड़ा-बहुत हटना पड़ता है; जबकि अनेकान्त
और स्यावाद एक दर्शन है, इसमें यह सब संभव नहीं है। ___उदाहरण के लिए हम स्याद्वाद के दृष्टिकोण से अथवा नय के दृष्टिकोण से देखें कि ह्न एक व्यक्ति अपनी पत्नी का पति ही है, भाई आदि अन्य कुछ भी नहीं। वही अपनी बहिन का भाई ही है, पिता का पुत्र ही है, मामा का भानजा ही है, अन्य कुछ भी नहीं। अत: इसमें सही समझ की ही जरूरत है, समझौते की नहीं।
गाथा १५ १४वीं गाथा में यह कहा कि ह्रभाव का कभी नाश नहीं होता।
अब १५वीं गाथा में कहते हैं कि सत् का कभी नाश तथा असत् का उत्पाद नहीं होता। मूल गाथा इसप्रकार हैं ह्न
भावस्स णत्थि णासोणत्थि अभावस्सचेव उप्पादो। गुणपज्जएसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति ।।१५।।
(हरिगीत) सत्द्रव्य का नहिं नाश हो अरु असत् का उत्पाद ना। उत्पाद-व्यय होते सतत सब द्रव्य-गुणपर्याय में ||१५|| भाव का कभी नाश नहीं होता तथा असत् का कभी उत्पाद नहीं होता। सत् द्रव्य अपने-अपने गुण-पर्यायों से उत्पाद-व्यय करते हैं। ___ आचार्य अमृतचन्द्रदेव इसी बात का स्पष्टीकरण करते हुये टीका में कहते हैं 'यहाँ उत्पाद में असत् के प्रादुर्भाव का और व्यय में सत् के विनाश का निषेध किया है।
भाव का अर्थात् सत्द्रव्य का द्रव्यरूप से विनाश नहीं है। अभाव का अर्थात् असत् का-अन्यद्रव्य का अन्यद्रव्य रूप से उत्पाद नहीं है; सत्द्रव्यों के विनाश एवं असत् द्रव्यों के उत्पाद हुए बिना ही द्रव्य अपने गुणपर्यायों में परिवर्तनरूप से विनाश व उत्पाद करते हैं।"
उत्पाद किए बिना ही पूर्व अवस्था से विनाश को प्राप्त होनेवाले और उत्तर अवस्था से उत्पन्न होनेवाले स्पर्श, रस, गंध वर्णादि जैसे कि ह्र घृत की उत्पत्ति में गोरस के अस्तित्व का विनाश नहीं होता तथा गोरस के अतिरिक्त अन्य किसी असत् का उत्पाद नहीं होता; किन्तु गोरस को ही सत् का विनाश और असत् का उत्पाद किए बिना ही पूर्व अवस्था से विनाश को प्राप्त होने वाले और उत्तर अवस्था से उत्पन्न होने वाले स्पर्श रस गंध वर्णादि परिणामी गुणों में मक्खन पर्याय विनाश को प्राप्त होती है।
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१.श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, नं. १०८, पृष्ठ ८९०, दिनांक ८-२-५२