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गाथा १० पिछली गाथा में यह कहा है कि जो अपने मूल स्वरूप को न छोड़कर सत्ता से अनन्य रहकर पर्यायरूप परिणमित होता है, वह द्रव्य है।
अब कहते हैं कि ह्र जो सत् लक्षण वाला है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सहित है एवं गुणपर्यायवान है वह द्रव्य है। मूलगाथा इसप्रकार है ह्र
दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं । गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्ह ।।१०।।
(हरिगीत) सद्रव्य का लक्षण कहा उत्पाद व्यय धुव रूप वह। वही आश्रय कहा है जिन गुणों अर पर्याय का ||१०||
जो सत् लक्षण वाला है, जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य संयुक्त है और जो गुण-पर्यायों का आश्रयभूत है, उसे सर्वज्ञदेव द्रव्य कहते हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र टीका में तीन प्रकार से द्रव्य का लक्षण कहते हैं। प्रथम ह्न द्रव्य का लक्षण सत् है। उक्त सत्ता से द्रव्य अभिन्न होने के कारण सत् स्वरूप ही द्रव्य का लक्षण है; परन्तु अनेकान्तात्मक द्रव्य का 'सत्' मात्र ही स्वरूप नहीं है कि जिससे लक्ष्य-लक्षण के विभाग का अभाव हो। लक्ष्य-लक्षण का विभाग भी है।
यहाँ प्रश्न होता है कि ह्र यदि सत्ता से द्रव्य अभिन्न है तो सत्ता लक्षण व द्रव्य लक्ष्य ऐसे विभाव को घटित होता है?
उत्तर :- अनेकान्तात्मक द्रव्य के अनन्त स्वरूप है, उनमें सत्ता भी उनका एक स्वरूप हैं। इसलिए अनन्त स्वरूप वाला द्रव्य लक्ष्यी है और उसका सत्ता लक्षण है ह्र ऐसा लक्ष्य-लक्षण विभाव अवश्य घटित होता है। उत्पाद-व्यय होते हुए भी द्रव्य का ध्रौव्यपना कायम रहता है। वे तीनों सामान्य कथन से अभिन्न ही हैं।
'गुण-पर्याय' द्रव्य का तीसरा लक्षण है ह्र ऐसा जो कहा है। इस लक्षण में अनेकान्तात्मक वस्तु के अन्वयी विशेष गुण हैं और व्यतिरेकी
द्रव्य का स्वरूप (गाथा १ से २६)
४९ विशेष पर्यायें हैं। अन्वयी अर्थात् एकरूप, सटशता । गुणों में सदैव एकरूपता ही रहती है, इसलिए उनमें सदैव अन्वय है तथा व्यतिरेक अर्थात् एक पर्याय का दूसरे रूप न होना। एक पर्याय दूसरे रूप न होने से पर्यायों में परस्पर व्यतिरेक है; इसलिए पर्यायें द्रव्य के व्यतिरेकी विशेष हैं; इसप्रकार एक ही साथ रहनेवाले गुण एवं क्रमश: प्रवर्तनेवाली पर्यायें द्रव्य से कथंचित् भिन्न एवं कथंचित् अभिन्न हैं तथा स्वभावभूत हैं; अत: द्रव्य के लक्षण हैं।
द्रव्य के इन उपर्युक्त तीनों लक्षणों से एक का कथन करने पर शेष दोनों बिना कथन किए अर्थ से ही आ जाते हैं। यदि द्रव्य सत् हो तो वह उत्पादव्यय-ध्रौव्यवाला और गुण-पर्यायवाला होगा ही। यदि वह उत्पाद-व्ययध्रौव्यवाला हो तो वह सत् और गुण-पर्यायवाला भी होगा ही और यदि गुणपर्यायवाला हो तो वह सत् एवं उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला भी होगाही।
इसप्रकार सतू नित्यानित्यस्वभाववाला होने से ध्रौव्य को और उत्पादव्ययात्मकता को प्रगट करता है तथा ध्रौव्यात्मक गुणों और उत्पादव्ययात्मक पर्यायों के साथ एकत्व दर्शाता है।
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य नित्यानित्यात्मक पारमार्थिक सत् को बतलाते हैं। उत्पाद-व्यय अनित्यता को और ध्रौव्य नित्यता को बतलाता है। इसप्रकार 'द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य' लक्षणवाला है ह्र ऐसा कहने से 'वह सत् है' ह्न ऐसा बिना कहे ही आ जाता है तथा अपने स्वरूप की प्राप्ति के कारणभूत गुण-पर्यायों को प्रगट करते हैं।
इसीप्रकार गुण-पर्यायें अन्वय व व्यतिरेकवाले होने से ध्रौव्य को और उत्पाद-व्यय को सूचित करते हैं एवं नित्यानित्यस्वभाववाले पारमार्थिक सत् को बतलाते हैं।" इसी भाव को कवि हीरानन्दजी कहते हैं ह्र
(दोहा) उपजन विनसन ध्रुवत जुत, सत लच्छिन करि दच्छ। गन परजै जाम लसै, सो है दरव सुलच्छ। ७७।। तीनौं लच्छिन दरवकै, अविनाभाव पिछान । नित्य अनित्य समस्त जग, जगै जथावत ग्यान।।७९।।
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