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गाथा १३ विगत गाथा में कहा गया है कि द्रव्य के बिना पर्याय एवं पर्याय के बिना द्रव्य नहीं है। द्रव्य व पर्याय दोनों का अनन्यपना ही द्रव्य है। वस्तु मूलतः निर्भेद ही है। कड़े और कुण्डल दो दिखने पर भी दोनों में स्वर्ण एक ही है।
अब कहते हैं कि ह्र द्रव्य के बिना गुण नहीं एवं गुण के बिना द्रव्य नहीं होते। अत: दोनों अभिन्न हैं।
दव्वेण विणा ण गुणा गुणेहिं दव्वं विणा ण संभवदि। अव्वदिरित्तो भावो दव्वगुणाणं हवदि तम्हा ।।१३।।
(हरिगीत) द्रव्य बिन गुण नहीं एवं द्रव्य भी गुण बिन नहीं।
वे सदा अव्यतिरिक्त हैं यह बात जिनवर ने कही||१३|| द्रव्य के बिना गुण नहीं होते तथा गुणों के बिना द्रव्य भी नहीं होते; इसलिए द्रव्य और गुणों में अभिन्नपना है, अभेदपना है।
टीकाकार अमृतचन्द्र आचार्य कहते हैं “यहाँ द्रव्य और गुणों का अभेद दर्शाया है।
जिसप्रकार पुद्गलद्रव्य से पृथक् स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण नहीं होते, उसीप्रकार द्रव्य के बिना गुण नहीं होते और जिसप्रकार स्पर्श-रसगन्ध-वर्ण से पृथक् पुद्गल द्रव्य नहीं होता; उसीप्रकार गुणों के बिना द्रव्य नहीं होता। इसलिए यद्यपि द्रव्य और गुणों का आदेशवशात् कथंचित् भेद है; तथापि वे एक अस्तित्व में नियत होने के कारण परस्पर का एकपना नहीं छोड़ते, इसलिए वस्तुरूप से उनका भी अभेद है अर्थात् द्रव्य व पर्यायों की भाँति द्रव्य और गुणों का भी अभेद है।"
षड्द्रव्य : द्रव्यगुण की अभिन्नता (गाथा १ से २६) इसी बात की पुष्टि में हीरानंदजी के निम्नांकित पद्य द्रष्टव्य हैं ह्र
(दोहा) दरव बिना गुण नहिं रहैं गुण बिन दरव न होई।
अजुत भाव तातै लसे, दरव-गुनन मैं सोई ।।८९।। द्रव्य के बिना गुण नहीं रहते तथा गुणों के बिना द्रव्य का अस्तित्व नहीं होता; इसलिए दोनों में एकत्व है, अभेद है।
अगले पद्य में कहा है कि ह्र द्रव्य और गुणों में संज्ञा, संख्या एवं लक्षण की अपेक्षा भेद कथन भी है; परन्तु उनमें प्रदेशभेद नहीं है।
(दोहा) दरव और गुन और यौं, जुदा करत आदेश । वस्तु एक बरतै दुविधि जुदा न है परदेस ।।११।। अनेकान्त विधि वस्तु है, जानै सम्यक् नैन ।
एक पच्छ लहि गहि रहैं, मूढ़ न पावै चैन ।।९२ ।। द्रव्य अन्य है, गुण अन्य हैं ह्र ऐसे भेद कथन से वस्तु के दो प्रकार होते हुए भी वस्तु मूलतः एक ही है; क्योंकि द्रव्य और गुण में प्रदेश भेद नहीं है। सम्यक्दृष्टि तो वस्तु के ऐसे अनेकान्त स्वरूप को जानते हैं, किन्तु अज्ञानी उसके एक पक्ष को ही ग्रहण करते हैं, अत: उन्हें निराकुल सुख की प्राप्ति नहीं होती।
इस गाथा का स्पष्टीकरण करते हुए गुरुदेव श्री कानजीस्वामी अपने प्रवचन में कहते हैं कि ह्र कोई भी वस्तु उत्पाद-व्यय ध्रुव बिना नहीं होती । अर्थात् द्रव्य अपने गुण-पर्यायों से अभिन्न हैं। संज्ञा, संख्या लक्षण
और प्रयोजन आदि की अपेक्षा से गुण व द्रव्य भिन्न कहे जाते हैं; परन्तु प्रदेशभेद नहीं है। ज्ञान-दर्शन आदि न हों और आत्मा हो ह्र ऐसा कभी भी बनता नहीं है।
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