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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप सत् लक्षण के साथ जिसमें गुण - पर्याय होते हैं, उसे द्रव्य कहते हैं। जो उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य हैं, उनमें नित्यानित्यपना भी आ जाता है। इसप्रकार उक्त लक्षण में तीनों लक्षण घट जाते हैं।
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गुरुदेवश्री कानजीस्वामी ने कहा है कि ह्न “द्रव्य और गुण-पर्याय में सर्वथा भेद नहीं है और सर्वथा अभेद भी नहीं है। यदि सर्वथा भेद होवे तो गुण और पर्याय अन्य-अन्य हो जाएँ और सर्वथा अभेद होवे तो गुण ही द्रव्य हो जाएँ अथवा पर्याय ही द्रव्य हो जाए; परन्तु ऐसा नहीं है। "
प्रश्न वस्तु त्रिकाल है और स्वतंत्र है; परन्तु उसकी पर्यायें पराधीन हैं, वे पर के कारण होती हैं ह्न यह माने तो इसमें क्या दोष है ?
उत्तर : पर्यायों में पर की निमित्तता है; परन्तु जब वे स्वयं स्वतंत्रपने परणमती हैं, तब पर की निमित्तता कही जाती है। द्रव्य के एक सत् लक्षण में 'उत्पाद-व्यय-ध्रुव और गुण- पर्याय' दोनों लक्षण भी गर्भित हैं। इसप्रकार एक लक्षण में तीनों लक्षण समा जाते हैं; क्योंकि जो 'सत्' है वह नित्य और अनित्यस्वरूप है। नित्यस्वभाव में ध्रुवता और अनित्यस्वभाव में उत्पाद-व्यय आ जाते हैं इसप्रकार सत् का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रुव कहा जाए तो उसमें गुण पर्याय लक्षण भी आ जाता है। गुण कहने पर ध्रुवता और पर्याय कहने पर उत्पाद-व्यय आ जाते हैं। इसप्रकार उत्पाद-व्यय-ध्रुव लक्षण कहने से सत् लक्षण और गुण- पर्याय लक्षण भी आ जाता है और गुण-पर्याय लक्षण कहने से सत् लक्षण आ जाता है और उत्पाद-व्यय-ध्रुव लक्षण भी आता है; क्योंकि द्रव्य नित्यानित्य है । इसप्रकार द्रव्य के तीनों लक्षणों में सामान्य विशेषता से भेद है; परन्तु वास्तव में वस्तु भेद नहीं है।"
प्रस्तुत गाथा में वस्तु को उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य लक्षण वाला तो बतलाया ही है तथा गुण-पर्याय भी कहा है। टीका में वस्तुयें उत्पादव्यय- ध्रौव्य होने से लक्ष्य लक्षण भी घटाया है।
श्री हीरानन्द ने तथा श्री कानजीस्वामी ने भी मूलगाथा एवं टीका का समर्थन करते हुए वस्तु को त्रिकाल सत, स्वतंत्र एवं स्वावलम्बी कहा है। • १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. ..........
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गाथा ११
पिछली गाथा में कह आये हैं कि ह्र द्रव्य का लक्षण उत्पाद-व्ययधौव्य से युक्त सत् है तथा वह द्रव्य गुणपर्यायवान है तथा नित्यानित्यात्मक है । अब कहते हैं कि ह्नद्रव्य उत्पाद व्यय से रहित केवल सत् स्वभावी हैं। हाँ, उसकी पर्यायें उत्पाद विनाश एवं ध्रुवता को धारण करती हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
उत्पत्ती व विसाणो दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो । विगमुप्पदधुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया ।। ११ ।
(हरिगीत)
उत्पाद - व्यय से रहित केवल सत् स्वभावी द्रव्य है । द्रव्य की पर्याय ही उत्पाद-व्यय-ध्रुवता धरे ॥ ११ ॥
द्रव्य का कभी उत्पाद या विनाश नहीं होता ह्न सदा सद्भाव ही रहता है। हाँ, उसकी पर्यायें विनाश, उत्पाद और ध्रुवता धारण करती हैं।
समयव्याख्या टीका में आचार्य अमृतचन्द्र नयों द्वारा स्पष्टीकरण करते हैं कि ह्न “यहाँ नयों द्वारा द्रव्य का लक्षण कहा गया है, इन दोनों की अपेक्षा से द्रव्य के लक्षण के दो विभाग किए हैं।
सहवर्ती गुणों और क्रमवर्ती पर्यायों के सद्भावरूप, त्रिकाल स्थित रहनेवाले, अनादि - अनन्त द्रव्य के विनाश और उत्पाद उचित नहीं है; परन्तु उसकी पर्यायों के (सहवर्ती कुछ पर्यायों के ) ध्रौव्य होने पर भी अन्य क्रमवर्ती पर्यायों के विनाश और उत्पाद होना घटित होता है। इसलिए द्रव्य द्रव्यार्थिकनय के कथन से उत्पाद रहित, विनाश रहित,
सत् स्वभाववाला ही होता है और वही द्रव्य पर्यायार्थिकनय के कथन से उत्पाद और विनाशवाला होता है। यह सब कथन निर्दोष एवं निर्बाध है; क्योंकि द्रव्य और पर्यायों में अभिन्नपना है।