________________
प्रस्तावमा
३९
मार्ग में कोई कष्ट नहीं होता । यह सावधानी इस लोककी यात्रा के लिये है । फिर भला बब प्राणी इस लोकको छोड़कर दूसरे लोकको (गत्यन्तरको ) जाता है तब क्या उसे इस लम्बी यात्रा के लिये पाथेयकी आवश्यकता नहीं है? है और अवश्य है। यह पाथेय है धर्म, जो उस परलोककी यात्राको सरल व सुखद बनाता है ।
उस धर्मका स्वरूप यहां ( ७ ) व्यवहार और निश्वय इन दोनों दृष्टियोंसे दिखलाया गया है। उनमें प्रथमतः व्यवहारके आश्रय से जीवदयाको - अशरणको शरण देने व उसके दुखमें स्वयं दुखके अनुभव करनेकोधर्म कहा हैं । उसके गृहस्थधर्म और मुनिधर्मकी अपेक्षा दो मेद, रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान एवं सम्यक्चारित्रको अपेक्षा तीन की अपेक्षा दस मेद निर्दिष्ट किये गये हैं । यह सब धर्म व्यवहारोपयोगी है और इसे शुभ उपयोगके नामसे कहा जाता है। यह जीवको दुर्गतिसे - नरक व तिच योनियोंके दुखसे-- बचाकर उसे मनुष्य और देवगतिके सुखको प्राप्त कराता है । इसलिये यह अपेक्षाकृत उपादेय है, किन्तु सर्वथा उपादेय तो वही धर्म है जो जीवको चतुर्गतिके दुखसे छुटकारा दिलाकर उसे अजर-अमर बना देता है । तब जीव शाश्वत पदमें स्थित होकर सदा निर्वाध सुखका अनुभव किया करता है। इस धर्मको शुद्धोपयोग या निश्वय धर्मके नामसे कहा गया है। इसके स्वरूपका निर्देश करते हुए यहां यह बतलाया है कि मोहके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले समस्त संकल्प-विकल्पोंसे रहित होकर जो शुद्ध आनन्दमय आत्माकी परिणति होती है उसे ही यथार्थ धर्म समझना चाहिये । उसमें वचन और शरीरका संसर्ग नहीं रहता ।
पूर्वोक्त व्यवहार धर्मको जो यहां उपादेय बतलाया है वह इस निश्वय धर्मका साधक होनेकी दृष्टिसे है । किन्तु जो प्राणी सांसारिक सुखको अभीष्ट विषयोपभोगजनित क्षणिक व सवाध इन्द्रियतृप्तिको - डी अन्तिम सुख मानकर उक्त व्यवहार धर्मको उसीका साधन समझते हैं और यथार्थ धर्मसे विमुख रहते हैं, उन अज्ञानी व कवाग्रही जनको लक्ष्यविन्दु बनाकर उस व्यवहार धर्मको मी हेय बतलाया गया है, क्योंकि, वह मोक्षका साधन नहीं होता। यहां (८) धर्मवृक्षकी मूलभूत उस जीवदयाको समीचीन चारित्रकी उत्पादक व मोक्ष-महलपर आरोहण करानेवाली नसैनी कहा गया है। साथ ही धर्मारमा जनोंके लिये यह प्रेरणा भी की गई है कि उन्हें निरन्तर अन्य प्राणियों के विषयमें दयार्द्र रहना चाहिये, क्योंकि, प्राणीमें समस्त व्रत, शील एवं अन्यान्य उत्तमोत्तम गुण एक मात्र उसी जीवदया ही आश्रयसे रहते हैं। स्वस्थ प्राणीके विषयमें तो क्या, किन्तु जो रोगाक्रान्त है उसे भी यदि सम्पत्ति आदिका प्रलोभन देकर कोई मारना चाहे तो वह उसे स्वीकार न करके उसकी अपेक्षा एक मात्र अपने जीवनको ही प्रिय समझता है। वह उस जीवनके आगे तीनों लोकोंके भी राज्यको तुच्छ समझता है। बस, यही कारण है जो इस जीवितदानके आगे अन्य सब दानोंको तुच्छ गिना गया है (१०) । इस जीवदया के बिना तप व त्याग आदि सच ही व्यर्थ होते हैं ।
उपर्युक्त गृहस्थ धर्म और मुनिधर्म में अधिक श्रेष्ठ तो मुनिधर्म ही है, फिर भी चूंकि मोक्षके मार्गमूत रत्नत्रयके धारक साधु ही होते हैं और उनके शरीरकी स्थिति उन गृहस्थोंके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये मोजनके आश्रित होती है, अत एक उन गृहस्थोंका धर्म (गृहिधर्म ) भी अमीष्ट माना गया है (१२) । जो धर्मवत्सल गृहस्थ अपने छह आवश्यकोंका परिपालन करता हुआ मुनिधर्मको खिर रखनेके लिये मुनियोंको निरन्तर आहारादि दिया करता है उसीका गृहस्थजीवन प्रशंसनीय है। इसके विपरीत जो गृहस्व धर्मसे