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प्रस्तावना
टीकाकी भाषा-टीकाकारने जिस संग मालामें इन टीका की रचना की है वह भविष्य माशुद्ध है । इस टीकाकी रचना करते हुए उन्हें बीच बीचमें हिन्दी वाक्यों व शब्दोंका भी अवलम्बन लेना पड़ा है (देखिये श्लोक ४-१२)। उनकी भाषाविषयक वे अशुद्धियां कुछ इस प्रकार है-वनतिष्ठनेन (१-६७), दुर्जयः दुर्जीतः (१-९९), स्तुत्यमानेषु (१-१०६), कठिनेन प्राप्यते (१-१६६), मनोइन्द्रियरहिताः (१०-३२, बाझपदार्थाः अन्यानि किं न सन्ति (११-२२), आकृष्टयन्त्रसूत्रात् आकर्षितसूत्रात् (११-६०), तत्पतेः तस्याः स्त्रियाः पतेः वल्लभात् (१२-१०), कियत् आनन्दं परिस्फुरति (१३-३), छभेन (१३-१४), प्रमुक्त्वा (१३-३९), प्रमाप्रमुखाः ...किरणा; खद्योते योज्यते (१३-५१), तेजःसौख्यहतेः अकर्तृ- सौत्यहतेः तेज: अकर्तृ ‘हन् हिंसागत्योः' देवादीनां सुखेन गमनस्य तेजः, तस्य तेजसः अफ अकारकम् (१७-७), घनघातात् घनतः घाताद , शरीरस्य संनिधिः निकटं न जायते (२४-७), उभयथा द्विप्रकार ( २५-२) इत्यादि ।।
संस्कृतके समान प्राकृतका भी उनका ज्ञान अल्प ही दिखता है । उदाहरणस्वरूप उनके द्वारा टीकामें किये गये ऋषभस्तोत्र के अन्तर्गत कुछ शब्दोंके अर्थको देखिये
५ अम्हारिसाण-मम सदृशानाम् ; ५ यिइच्छिया हृदयस्थिता; ८ स चिय-शची सुरदेवइन्द्राणी च; ९ सुरायलं-सुरालयं मन्दिरं; १४...सासछम्मेण श्वासप्रेन; १६ वराई-वराकिनी; १९,३२....चिय= भो अर्च्य भो पूज्य; २० मुयं व-मृतगवत् ; २१ जियाण-यावताम् ; ३२ अहोकन्यजडोह-अहो इत्याश्चर्ये ।....जलौघं समुद्रं; ३३ हिययपईहरहृदयप्रदीपकर; ३३ चिय-भो अर्य; ४५ हरिणकमल्लीणोचन्द्रकमलीनः; ५५ वत्यसत्थे वस्तुशाने ।
६. एकत्वसप्ततिकी कलह टीका प्रस्तुत ग्रन्थका चतुर्थ प्रकरण एकत्व-सप्ततिकी अपेक्षाकृत अधिक प्रसिद्धि रही है, उसकी स्वतंत्र प्राचीन प्रतियां भी उपलभ्य होती हैं, और उसके अन्य ग्रन्थकारों द्वारा उद्धरण भी पाये जाते हैं। इस प्रकरणपर कनड भाषामक एक टीका भी उपलब्ध है जिसके लगभग ५० पद्य संस्कृत टीका सहित सन् १८९३ में पं. पमराज द्वारा सम्पादित होकर काल्याम्बुधि नामक अन्यमालामें प्रकाशित हुए थे। डॉ. उपाध्येजी ने इसका तथा तीन हस्तलिखित प्राचीन प्रतियोंका अवलोकन किया है । इस कनादी टीकाकी शैली दार्शनिक व समास-बहुल है । उसमें संस्कृत व प्राकृत के अनेक अवतरण मी पाये जाते हैं जो कुन्दकुन्द और अमृतचन्द्र आचार्योंकी रचनाओंसे लिये गये सिद्ध होते हैं। टीकाकारका नाम है पद्मनन्दी । इस नामके साथ पंडितदेव, व्रती व मुनिकी उपाधियां पाई जाती है। सौभाग्यसे उन्होंने अपना जो परिचय दिया है वह ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण है। वे शुभचन्द्र राधान्तदेवके अमशिष्य थे
और उनके विद्यागुरु थे कनकनन्दी पण्डित । उन्होंने अमृतचन्द्रकी वचनचन्द्रिकासे आध्यात्मिक प्रकाश प्राय किया था, और निम्बराजके संबोधनार्थ एकत्व-सप्तति वृत्तिकी रचना की थी। टीकाकी प्रशस्तिमें पानन्दी और निम्बराज दोनोंकी खूब प्रशंसा की गई है । अनुमानतः ये निम्बराज ये ही है जो पार्धकविकृत 'निम्ब-सावन्त-चरिते' नामक ५०६ षट्पदी पापात्मक कन्नड काव्यके नायक है । इस काव्यकी उपलभ्य एक मात्र प्राचीन प्रति वि. सं. १७९३ की है। काव्यके वृत्तान्तसे सिद्ध होता है कि निम्बराज