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नाम ॥ ३१ ॥ कर्म उदय से उदय भाव होय, ते तो भाव जीव छै सोय । कर्म उपस्मीयांसू उपसम भाव, ते उपसम भाव जीव इणन्याय ॥ ३२ ॥ कर्म क्षय से क्षायक भाव होय, ते पिण भाव जीव छ सोय । कर्म आयोपसम से क्षयोपसम भाव, ते पिण छै भाव जीव इणन्याय॥३३॥च्या भाव छै परिणामीक, यो पिण भाव जीव छै ठीक । और जीव अजीव अनेक, परिणामिक विना नहीं एक ॥३४॥ ये पांचूभाव भाव जीव जाणों, त्यांन रूडी रीत पिछाणो । उपजै नें विलै होजाय, ते भाव जीव छै इणन्याय ॥ ३५॥ कर्म संयोग वियोग से तेह, भाव जीव निपजे येहाच्यार भाव निश्चय फिर जाय, चायक भाव फिरै नहीं रहाय ।। ३६ ।।
भावार्थ ॥ असंख्यात प्रदेशी द्रव्यं जीव संसारी अनादि कालसे कर्म संतती के साथ लिप्त हो रहा है, अष्ट कमों के संयोग धियोग से भाव जीव होता है सो पांचप्रकार से जिनके नाम उदय भाव १, उपसम भाव २, क्षायक भाव ३, क्षयोपसम भाव ४, परिणामिक भाव ५, अष्ट कर्मों के उदय से उदयभाव जीव । सात कर्म उपसम होय नहीं एक मोहनीय कर्म उपसमें याने दवै तय उपसम भाव अष्ट कमी के क्षय होनेसे क्षायके भाव जीवाशामावरणी दरिशना. घरणी मोहनीय अन्तराय यह च्यार कर्मक्ष योपसम हो तब क्षयोपसम भाव जीव । और उदय में या उपसम में क्षायक में या