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(१४१) हो ॥ भ ।। सम्बत् अठारे में छपना बर्ष में । फांग ण विद तेरशशुक्रावारहो।।। सं॥५६॥ इति ।
भावार्थ ॥ . . . सावध जोग वाने के त्याग करके सावध जोगों को कंधने से व्रत संबर होय, और निरवद्य जोग देशतः कंधने से संबर और सघ संधन से अजाग संयर होता है। साधु मुनिराज आहार पानी आदि कल्पनीय द्रव्य भोगते हैं सो निरवध जोग हैं तथा धावक भोगता है सो सावध जोग हैं, इसलिये श्रापक उपवास घेला आदि तपकरें जिस में आहार पानी भोगने का त्याग किया जिससे सहचर व्रत संयर होता है, और सांधू श्राहार पानी
आदि भोगने का त्याग कर तब उनके भी संवर होता है, जय कोई कहै साधू आहार पानी करें जिससे पाप नहीं लगै तो फिर संपर फिसतरहें हुआ जिसका उसर यह है कि पाप श्रवै सोही प्राश्रय नहीं हैं आश्रव तो पुण्य को भी श्रवता अर्थात् ग्रहण करता है और पाप को ग्रहण करता है इसलिये साधू आहार पानी भोगने के शुभ जोगों को संधने से पुण्य कर्म के आने के द्वार को रुंध्या सो संवर हुश्रा और थावक पाप कर्म के आने के द्वार जो आहार पानी भोगर्नेफे अशुभ जोग द्वार कंध्या जिससे संघर हुआ तात्परधावक का हालना चलना बोलना खाना पीना श्रादि कर्तव्य है सो सावध जोग व्यापार और साधू के यही कर्तव्य निरवध जोग व्यापार है, श्रावक के सावध को त्यागन से व्रत संबर और निरखध के त्यागने से संयर होता है. चारित्र है सो व्रत संयर है सो अन्बत को त्यागने से होता है और अजोग संघर सर्व निरषचं जोगों को रूंधै तब होता है । संवर है सो जीवका निजगुन है भाष जीव है सोही स्थिर प्रदेश है।छहासंबर पदारथ को श्रोलखाने के निमित्त खामी श्री भीखनजीन श्री नाथद्वारा में सम्बत् १५५६ फाल्गुन धुदी १३ शुक्रवार को जोड किया जिसका भाया