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के विना जोगों का ध्यापार नहीं हैं, और पुद्गलों को ग्रहण करणे की शक्ति जीव में उत्पन्न हुई है उसका नाम वीर्य है जीवके भाव है सो निश्चय ही जीव है, मोह कर्म को उपस्मान अर्थात् दबाने से जीवके भाव उत्पन्न हुये उसका नाम उपस्म भाव है जिससे दोय गुन प्रगट होते हैं रणन मोहनीय को उपस्माने से उपस्म समाफित, और चारित्र मोहनीय को उपस्मान से उपस्म चारित्र येह दोनूं ही जीव के निरमल गुन है, च्यार घातिक कर्म क्षय होन से जीव जो भाव निष्पन्न होते हैं उस क्षायक भाव कहते हैं-शानाधरणीय क्षय होने से केवल ज्ञान, दरशनावरणी क्षय होने से केवल दरशन मोहनीय कर्म दो प्रकार का है दरशन मोहनीय क्षय होने से क्षायक समफित और चारित्र मोहनीय क्षय होने से क्षायक चारित्र प्रगट होता है. चौथा घातांक कर्म अंतराय है सो क्षय होने से नायक बीर्य गुन प्रगट होता है जिससे दानालब्धि श्रादि पांचूं ही लब्धि क्षायक भाव की होजाती है तब किसी बात को अंतराय नहीं रहती है,तात्पर्य उपस्म भाव क्षयोपसमभाव और क्षायक भाव ये तीनूं ही जीवके निरमल गुन हे सो भाष जीव है तथा जितनां जितनां जीव निरमला है वोही निरजरा है वोही जीवका निरदोष गुन है, अर्थात् देशत जीव उजला है सो तो निरजरा है और सर्व ते जीव उजला है वोह सांत है, जैसे देश वत.सर्थ व्रत में समा जाता है वैसे ही निरजरा मोक्ष में समाजाती है, निरजरा भी जीवका निरदोष गुन है
और मोक्ष मी जीवकां गिरदीप गुन है दोनूं ही भाव. जीव है, निरजरा को ओसखाने के लिये स्वामी श्री भीषनजीनं श्रीजी द्वारशहर में सम्बत् १८५३ मिती फाल्गुन सुद १० गुरुवार को ढाल जोड कर कही उसका भावार्थ मैन मेरी बुद्धयनुसार कहाजिस में कोई अशुद्धार्थ हो उसका मुझे बारम्बार मिच्छामि दुक्कडं है।'
आपका हितच्छ :
आपका
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.... श्रा० जोहरी गुलाबचंदलूणियां...