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॥ भावार्थ ॥ अपशण उणोदरी श्रादि चार प्रकार का तप कहा सो निरजरा फी करणी है इसके फरणे से जीव कर्म मयी रज को खपाके उज्वल होता है, पूर्व सांचत कर्मों को खपाने के निमित्त उदय में ल्याके कष्टों को सम्परिणाम सहन करने से निरजरा होती है ऐसी करणी करणे लें निरवाण पद नजदीक होता है, साधु मुनिराज चारे प्रकार का तप करें जव जहां जहां निरवध जोग के तब वहां तहां उनके संबर होता है अर्थात् शुभयोगों से पुन्य: बंधते ने पुल्य रुके तथा अशुभ कर्म खय होके जीव ऊजला हुवा सो निरजरा, एसे ही वार प्रकारका तप में से श्रापक तप करै तब ज्यो ज्यो अशुभ योग रूंधे उनसे पाप के लोबत संवर हुवा. और अशुभ कर्म वय होके जीव ऊजला हुया सो निरजरा हुई, और इस निरजरा की करणी बार प्रकारकी में से यदि अव्रती तथा मिथ्याती करे तो उनके भी अशुभ कर्म खय होते हैं और जीव निरमला अर्थात उजाला होता है के मिथ्याती जीवतो शुद्ध करणीकरने लें अनन्तलारी के प्रति संसारी होके अनुक्रम जलद. ही मोक्ष स्थान पाते हैं, साधुश्रावक समदृष्टी तय करने से उत्कृष्ट कर्म छोत टाल के उत्कृष्ट रसान धान लें तीर्थकर गात्र बांधते हैं, तप सें संसार का अंत करते हैं वहुसंसारी का लघूलंसारी होफे सकल कर्म रहित होकर सिद्ध होते हैं, तपस्या करने से कोडो भव के संचे हुये कर्न क्षिण मात्र में खय होते हैं ऐसा अमूल्य रतन तप है इसके गुणों का पार नहीं है निरजरा अर्थात् देशतः जीव निरमला और निरजरा की करणी जो बारे प्रकार की ऊपर कही है सो यह दोनूं ही निरवद्य है दोनही आशा मांहि है दोनूं ही श्रादरणे योग्य है, कर्मों से निवतै सोही निरजरा है इसही लिये निरजरा को निरवध कही है, जितनां जितनां जीव ऊजला है सोही निरजरा है और मोक्ष का अंस है तथा जिस करणी लें ऊजला होता है सो मिरजरा की फरणी है वो निरवद्य है उसको जिन श्राहा है जिस करणी की जिन आज्ञा नहीं है तो सावध है उससे पाप कर्म बंधते हैं किन्तु निरजरा नहीं होती और न.