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(१७८) निकलता पानी रूप पुन्य पाप है, तालाव में पानी पान को नाले होते हैं तो इस जीव मयी तालाव के मिथ्यात अव्रत प्रमाद कषाय और जोग यह पंच पाश्रवरूप पांच नाले हैं जिस से कम मयी पानी श्राता हैं, जव जीव आश्रव रूप नालों को रोक कर बंध रूप जो बंधा हुआ पानी है उसे उलेची उलेची अर्थात् को को उदेरी उदेरी अणशण उणोदरी आदि बार प्रकार का तप करके पुन्य पापरूप पानी को तालाव से अलग करने से अनुक में सर्व कम्मौ का नांश अर्थात् क्षय करके रीता तालाव रूप मोक्ष पद पाता है, तात्पर्य तालाव में पानी भरा है वैसे ही जीच मयी तालाब में बंधे हुये कर्म रूप पानी है जहांतक उदय में नहीं आयें तहांतक उन्हीं पुन्य पाप की प्रकृतियों का नाम बंध हैं जिसका यथार्थ वर्णन करते हैं।
॥ ढाल ॥
अहि अहि कर्म विडंबणां ॥ एदेशी ॥ बंध नीपजै छै आश्रव द्वार थी । तिण बंध ने कयो पुन्य पापोजी ॥ ते पुन्य पाप तो द्रव्य रूप छै । भावें बंध कह्यो जिन आपोजी॥ बंध पदास्थ ओलखो ॥ १॥ ज्यूं तीर्थकर पाय ऊपना । ते. द्रव्य तीर्थकर जाखोंजी || भाव तीर्थकर कहि जे तिणसमें । ते होसी तेरमें गुण ठाणोंजी ॥६॥ ॥२॥ ज्यू पुन्य पाप लागो कयो । ते तो द्रव्ये छ पुन्य पापोजी ।। भावे पुन्यं पाप तो उदय हुवां दुःख सुख भोगवै हर्ष संतापोजी ।। बं ॥ ३॥ तिण