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( १८०) बंध कयो प्रकृती बंध तणों । प्रकृतारा अनन्त प्र. देशोंजी ॥ ते लोलीभूत जीव सूं होय रह्या । प्रकृती बंध उलखाई विशेषोजी ॥ बं ॥ ११ ॥ पाठ कौरी प्रकृति जुई जुई । एकेकांरा अनन्त प्रदेशोजी ।। इक इक प्रदेशें जीवरै । लोलीभूत हुई छै विशेसोजी ।। ।। १२॥ . . .
॥ भावार्थ ॥ . जीव के प्रदेशों के कर्म बंधे हैं उन्हें बंध कहते हैं घोह धंध प्राश्रव द्वार से हुवा है जीव आश्रव से पुण्य
और पाप वांधा है सोही बंध है पुण्य पाप तो जीव के उदय होय तब कहते हैं परंतु बंधे हैं जिन्हों को भी द्रव्य निक्षेप की श्र: पेक्षाय पुण्य पाप कहा है जैस गर्भावास म तथा ग्रहस्थाश्रम में रहते हुए तीर्थकर को द्रव्य तीर्थकर कहते हैं परंतु भाव तीर्थक र तेरमे गुणस्थान होते हैं वैसे ही पुण्य पाप तो उदय होय तव हैं परंतु पुण्य पाप मयी उदय होने वाले पुद्गल जो जीव बांध हैं उनको भी द्रव्य पुण्य पाप कहे हैं, वे पुद्गलों का बंध जीव के दोय प्रकार से हैं येक तो पुण्य बंध और दूसरा पाप बंध, पुण्य का वध उदय होने से जीवके सुख साता होती है और पाप का बंध उदय,होने से जीवके दुःख असाता होती है परंतु बंधे हुए उदय नहीं होय जय तक जीव के सुख दु.ख कदापि नहीं होता है इसलिये जीव के पुण्य पाप बंधा है उसका नाम बंध है वोह च्यार प्रकार से है, प्रकृति बंध.१ स्थिति बंध २ अनुभाग बंध ३ प्रदेश बंध ४ यह च्यार भेद हैं जिसका वर्णन करते हैं प्रकृति बंध कर्म खभाव के न्याय, अर्थात् कर्म बंधे सो प्रकृति पणे बंधे हैं जैसे झानावरणी कर्म को ५ प्रकृति, दर्शनावरणी कर्म की प्रकृ. ति, मोहनीय फर्म की २८ प्रकृति, अंतराय कर्म की ५ प्रकृति, यंद