Book Title: Navsadbhava Padartha Nirnay
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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(२६ ) पुण्य पाप बंध यह तीनहीं कर्म । ते कर्म तो निश्चय पुद्गल जाणों पुद्गल छै ते निश्चय अजीव । विण मांहि शंका मूल म प्राणों ॥ पुण्य पापनें अजीव न श्र? मित्थ्याती ॥ ३॥ पुण्य पाप वेहु ने ग्रहै छै श्राश्रव । पुण्य पाप ग्रह ते निश्चय जीव जाणों ॥ निरवध जोगांसं पुण्य ग्रहै छै। सावध जोगांसें पाप लागै छै श्रांणो ॥ श्राश्रवनँ जीव न श्रद्धे मित्थ्याती ।। कर्म भावानां द्वार श्राश्रव जीवरा भाव । तिण पाश्रवरा वीसूही बोल पिछाणों । तै बीसूहीं वोल छै कौरा करता। ते कौरा करतानै निश्चय जीव जाणों ॥ श्राश्रव ॥ ६॥ श्रातमा बस करै तेहिज संवर । श्रातमा बस करै ते निश्चयही जीव ॥ तेतो उपसम क्षायक क्षयोपस्म भावः । श्रेतो जीवरा भाव छै निरमल अतीव ॥ संवरने जीव न श्रद्धै मित्थ्याती ॥ ७ ॥ श्रावता कर्मानें रोक ते संबर। श्रावता कर्म रोके ते निश्चय जीव ॥ तिण संबस्नै जीव न श्रद्धै मित्थ्याती । तिणरै नरक निगोदरी लागे छै नींव' ।। संबर ॥ ८॥ देशः थकी कर्मी नै तोडै जब ।

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