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( १९६) . मोक्षो प्यात्मा समस्त कर्म विरहित इति तस्मा : ज्जीवाजीवो सद्भावपदार्थावितिवक्तव्य मतए: वोक्त मिहैव जद त्थिंचणं लोए तं सव्वं दुप्पडयार तंजहा जीवचेव अजीवचत्ति अत्रोच्यते सत्यमे तत् किंतु यांवेव जीवाजीव पदार्थों सामान्येनोक्तो तावेवेह विशेषतो नवधोक्तो समान्य विशेषात्म कत्वा दस्तुन स्तथेह मोक्षमार्गे शिष्यः प्रवर्तनीयो न संग्रहा भिधान मात्रमेव कर्तव्यं सच यदैव माख्यायते यदुता श्रवो बन्धो बन्धद्वारा यातेच पुण्य पापे मुख्यानि तत्वानि संसार कारणा निसंवर नि । जरेच मोक्षस्य तदा संसार कारण त्यागे नेतरत्र प्रवर्तते नान्यथे त्यतः षट्कोपन्यासः मुख्यं साध्य व्योपनार्थच मोक्षस्येतिः।
. . . * भावार्थ * .... नव प्रकार के पदार्थ कहे सो परम अर्थ करके अन उपचार से तद्भाविक है अर्थात् कथन मात्र ही नहीं हैं छती बस्तु हैं से कहते हैं जीव सुख दुःख का ज्ञाता उपयोग लक्षणी है १, अजीव सुख दुख का अज्ञाता और अन उपयोग लक्षणी है २, पुन्य जीव के शुभ प्रकृति रूप कर्म है ३, पाप जीव के अशुभ प्रकृति रूपकर्म ... है४, शुभाशुभ कर्मों का ग्रहण करने वाला आश्रव है ५, आश्रय' : का निरोध गुप्त्यादिसंबर है, ६, देशतः कर्मों को क्षय करैः सो निरजरा है ७, आश्रवं द्वार से कर्म प्रेदेशा ग्रहण किये सो आत्म प्रदेशों के संयोग है अर्थात प्रात्म प्रदेशों के कर्म प्रवेशा बंधे है . .