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( १६५) का होय तथा निजरा का कामी नहीं और यह लोक परलोक काम भोगादि निमित्त अथवा यश भाहिमां बधाने को तपस्या करें उसे अकाम निरजरा कही है जिससे कर्म अल्प मात्र झाड़ते हैं। दूसरी सकाम निरजरा कर्म काटणे के लिये करें अर्थात् नि: रजरा का कामी होके तप करें जिसको सकाम निरजरा कहि. है, निरजरा की करणी शुद्ध निरदोष है जिससे जीव कर्ममयी मैतः को अलग कर के उज्वल होता है जैसे धोबी कपड़े को साबुन देके तावड़े में तपाता है और पानी से साफ़ करता है वैसे ही तप करके श्रातम प्रदेशों को तपाव ज्ञानरूप साधुन देके.ध्यानरूप. जल से धोबी समान अंतर पातमा है सो पाप मयी मैल से जीवके प्रदेश मैले हारह हैं उन्हें धोवे उसे निरजरा की करणी कहते हैं उसके बारह भेद हैं सो कहते हैं। १-श्रणशण अर्थात् थाहार पानी भोगने के त्याग कर थोडे कोल पर्यंत अथवा जायजीव पय्यंत जिसको अणशण कहते हैं, लाधू शुभयोगों को रूंधैं तय उनके तो जितने शुभयोग रुके उतना ही सबर होता है और श्रावक का खाना पीना आदि कर्तव्य सावध है अशुभयोग हैं जिसे त्यागने से व्रत संबर होता है परंतु कष्ट को सम परिणामों से साधु तथा धावक सहन करते हैं जिस से कर्मक्षय होके जीव निरमल होता है इस. लिये निरजरा की करणी कही है। २-अगोदरी तप दो प्रकार से होता है, द्रव्य और भाष; ऊणा
याने कम करने से होता है, द्रव्ये तो उपग्रण आदि वस्तु कम रखें तथा आहार पानी कम करें, और भावें क्रोधमान माया
लोभ को घटावै। ३-भिक्षाचरी तप भिक्षा छोडने से, अर्थात् द्रव्य क्षेत्र काल भाव
से अनेक प्रकार के अभिग्रह धारण करें और निरदोष भिक्षा 'आचरते कष्ट होय उन्हें सहन करें। ४-रश परित्याग अर्थात् घृत मिष्टान आदि रशों का त्याग करें • और अरसं विरस आहार को सम परिणामों से भोगधैं याने ..राग द्वेष न करें। :