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जिणवार हो । मुनि ॥ ४७ ॥ वीर्य लब्धि तो निरंतर रहै । चवदमां गुणाणी लग जांणं हो ॥ मु । बारमा ताई तो क्षयोपसम भाव छ । खायक तेरमें चोदमें गुणगण हो । मु॥ नि ।। ॥४८॥ अंतराय रो क्षयोपसम हुवां जीवरै । पुन्य सारू मिलसी भोग उपभोग हो !! मु।। साधु पुद्गल भौगवै ते शुभं जोगं । और भोग वै ते अशुभ जोग हो । मु॥नि ॥४६ .
॥ भावार्थ ॥
अनन्तान बंधिया क्रोधं श्रादि घणों प्रकृतियां मोहनीय कर्म को क्षयोपसम हाय तब जीके देश व्रत गुण निपजता है। इसही तरह घंणी प्रकृतियों का क्षयोपसम होने से सामायक आदिच्या: रों चारित्रों को जीव पाता है, क्षमा दया निरलोभता आदि अनेके गुण भी मोहनीय कर्मक्षयोपसम होने से होते हैं, देशैवत तथा ध्यार चारित्र है सो क्षयोपसम भाव है हायक चारित्रं की धानगी है तथा चारित्र है सो व्रतं संवर है परंतु चारित्र की क्या हैं सो शुभ जोगों से होती है जिसस कम कटते हैं जी उजली होता है तथा क्षयोपसम भाव से भी जीव उज्वलं होता है इंस लिये. इनका वर्णन निरज़रा पदार्थ में भी बताया है। दरशन मो. हनीय क्षयोपसमं होने से शुद्ध श्रद्धामयी गुणं निपंजता है, तीन पृष्ट क्षयोपस्म भाव है, शुद्ध श्रद्धी ही को दृष्ट कहते है किन्तुं अं. शुद्ध श्रद्धा को एएं नहीं कहते, अशुद्ध श्रद्धा है सो तो मिध्यात्व है परंतु दृष्ट नहीं हैं, मिथ्यात मोहनीय क्षयोपसम होने से मित्थ्या &ष्ट उज्वलं होती हैं जिससे कितने ही पदार्थों को शुद्धश्रद्धा हैं। सममिथ्या मोहमीय क्षयोपसंग होन से सममिरथ्याष्टं उज्ज रही