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( १५४) होती है तब बहोत पदार्थों को जीव शुद्ध पद्धता है, और समकित मोहनीय क्षयोपसम होने से समष्ट उज्वल होती है जब जीव नवही पदार्थों को यथार्थ श्रद्धता है शुद्ध श्रद्धान है सोही सम्यक्त्व है, मित्थ्यात्व मोहनीय का उदय जहां लगि हैं तहां 'लगि सममिथ्यादृष्ट नहीं पाता, और समभित्थ्या मोहनीय का उदय है जहां तक समदृष्ट नहीं पाता है। समकित मोहनीय का उदय जहांतक जीवके रहता है तहां तक जीव क्षायक सम्यक्त्व नहीं पाता है, तात्पर्य तीनूं ही दृष्ट है सो क्षयोपस्म भाव है, ना. या सम्यक्त्व की वानगी है. मोहनीय कर्म का क्षयोपस्म होने से जीर उज्वल होता है लो क्षयोपसम भाव है अर्थात् जीव निरमला हुवा लोही निरजरा है जिलस जीवके आठ बोलों की प्राप्ति होती है-लामायक श्रादि च्यार चारित्र, देशत, और तीन इष्टः चौथा धातिक कर्म अंतराय है जिसका क्षयोपस्म होने से जीव. के श्राठ बोलों की प्राप्ति होती है-पांच लब्धि और तीन वीर्य जिसका वर्णन कहते हैं। १-दाना अंतराय का क्षयोपस्म होने से दान देने को लब्धि उप
जती है। २-लाभा अंतराय का क्षयोपस्म होनेसे लाभ ने की अर्थात् वस्तु
पान की लब्धि उपजतो है। ३-मोगा अंतराये का क्षयोपस्म होनेसे भोग भोगने की सब्धि
उपजती है! ४-उपभोगा अंतराय का क्षयोपस्म होनेसे उपभोग भोगने की
लब्धि उपजती है। ५-वीर्य अंतराय का क्षयोपस्म होनेसे वीर्य लब्धि :उपजती है अर्थात् पुद्गलों का चय उपचय करने की शक्ति जीव में होता है तथा बाल वीर्य, बाल पण्डित वाय,और पण्डित बाथ, जाव पाता है यह उपरोक्त पांचू ही प्रकति अंतराय कर्म की है सो