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(१५५) जीय के देशत सदा योपस्म रहती है जिससे सदा जीव में पांचो लब्धि पाती है, अर्थात् दान देनेको लब्धि तो जीपके : निरंतर है और दान देता है सो जोगों का व्यापार है, लाश लब्धि भी जीवके निरंतर है परंतु वस्तुवों का लाभ तो किसी
समय ही होता है, ऐसे ही भोग उपभोग लब्धि भी जीवके • निरंतर रहती है परंतु भोग उपभोग तो भोगचं उसही वर्ष
जोगों का व्यापार है, बीर्य लब्धि भी जीवके निरंतर 'चौदमा 'गुर्ण स्थानतक है जिसमें बारवां गुणस्थान तक तो क्षयोपस्म भाव है और तेरवे चौदा गुणं स्थान शासक भांव की लब्धि है, तात्पर्य पांच लब्धि है लो धारमा गुणस्थान तक क्षयोपस्म भाव है सो जीवका निरमला गुंन है उसंही का वाम निरजरा है, और ज्यो चतराय कर्म का क्षयोपस्म होनेस' तथा पुन्योद. य संभोग उपभोग जीव को मिलता है जिसे साधू भोगवे सो . तो शुभ जोग व्यापार है क्योंकि साधू तो बस्तु प्रांशुक 'निर. दोप जिन शाज्ञा प्रमाण भोगते हैं इसलिये, और ग्रहस्थं ज्यो पुद्गल भोगता है लो सापद्य जोग व्यापार है याने अशुभ जोग हैं, श्रव तीन प्रकार के वार्य है जिसका वर्णन कहते हैं।
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॥ढाल तेहिज ॥ , हिवें बीर्य तणां तीन भेद छै । तिणरी करि जो पिछाण हो । मु॥ बाल वीर्य कहि छै बालनीं। चौथा गुण गणां तांई जांण हो ॥ मु॥ ॥नि ॥ ५० ॥ पण्डित वीर्य कहि छै पण्डित तणें । छहाथी लेई चौदमें गुण गण हो । मु॥. बाल पण्डितः केही छै श्रावक तणें । येह तीन ही उज्वल ऐन जांण हो । मु॥ नि ॥५१॥