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(१४७) मांय हो । मु॥ तमां दया, संतोषादिक गुण वधै भली लेश्यादिक वर्ते जब श्राय हो । मुनि॥ ।। २७ ।। भला परिणाम पिण वतै तेहनां । भला जोग पिण वर्ते ताय हो।।मु ॥ धर्म ध्यान पिण ध्यावे किणा समें ! ध्यावणी श्रावै मिटियां कषाय हो । मु॥ नि ॥२८॥ ध्यान परिणाम जोग लेश्या भला । भला वतै छै अध्यवसाय हो "मु ॥ सारा वतै अंतराय रो क्षयोपस्म हुवां । मोह कर्म अलगो हुवा हाय हो ॥मुनिHRE |
॥ भावार्थ ॥
अब सातमा निरजरा पदार्थ कहते हैं निरजरा अर्थात् निरम: ला या ऊजला जीप सो निरजरा जीवका निजगुन है, अनादिका. ल से जीव अशुभ कर्म मयी मैल से मैला हो रहा है आठ कर्मों का सङ्गी जीव अनादि काल से हैं जिन्ह कर्मों की उत्पत भाव द्वार है, जीवके असंख्याता प्रदेश है सो सर्व प्रदेश आश्रय द्वार है जीवके येक येक प्रदेश पर कर्मके अनन्तानन्त प्रदेश लगते हैं वे उदय होके समय समय अनन्तेही अलग होते हैं उनके अलग होनेसे जीव ऊजला होय उसे भी निरजरा ही कहते हैं परंतु फिर नवीन कर्म खोटी करणी करणे से लगते रहते हैं, आठ कर्म में च्यार कर्म घण घातीक हैं जिससे जीवके निजगुनों की घात हो रही है लेकिन घातिक कर्मों का भी किंचित् क्षयोपस्म सदा रहता है इसलिये जीवके निजगुन भी हमेशां ऊजले रहते हैं, जितने जितनं घातिक कमी का क्षयोपस्म होता है उतना उतना ही जीव देशत उज्वल होता जाता है, जीव उज्वल होय उस हों