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(११७) · तात्पर्य उपरोक्त वीस प्राधव द्वार'को सो जीप के परिणाम हैं परिणाम है सोही प्रार्थव द्वार जीव है। मन बचन काया ये तीन प्रकार के जोग हैं सो व्याजोगतो अजीव है, रुपी है, और भाष जोग है तो जीव है, अरूपी है, इसलिये ही, जोग भातमा कही है, भाष जोगों के संग ही द्रव्य जोग कहे हैं, "द्रव्य जोंगों से तो कर्म लगते नहीं, पोतो.अजीव है, और भाव जोगों से कर्म लगते हैं इस से भाव जोगों को आप कहा है, कई अहानीमा. 'भंव और कर्म येकही श्रद्धते हैं तथा द्रव्य जोगों को मांधव कहते हैं, मगर वे मोह भंध जीव अपनी भाषा के माप हो अजान है क्योंकि काया का द्रव्य जोग सो आठ स्पर्श है, और कर्म है सो प्यार स्पर्शी है, तो कर्म और जोग यक कहीं ठहरा महानुभावो खामी श्री भीखनजी का कहना है कि आप को कर्म कहै उन की श्रद्धातो ऊठी वही से झूठी है, उन के हीये. कहिये हदय और लिलाड कहिये मंगज'ये दोन फूटे हैं भात 'शान चलु रहित हैं, जिस से हवयं और दिमाग में असा नहीं विचारते हैं कि कर्म है सोक्या है तथा करता है सो कोन है, इसलिये इन दो को यथा तथ्य अचाने को फंपाकरिके फरमाया है कि बीस बोलों में सावध किंतने और निरवंद्य कितने हैं, तथा किस किस कर्म के उदय से जीव कैसा कैसा कर्तव्य करता है . सो विस्तार पूर्वकं कहते हैं। . :. .. , .. ।
. ॥ ढाल तेंहिंज।। बीस.श्राश्रवमें सोलतो एकान्त सावध । ते पाप श्रावना छै. दारोरे.॥ जीवरा कर्तव्य मांगते खोटा। ते पाप तणां करतारोरे ॥श्रा ॥ २१ ॥ मन ब. चन कायारा जोग व्यापार । वलि समुचयं जोगं व्यापारोरे । ये.च्यारूही श्राश्रय सावध निरवद्य।