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॥ भावार्थ ॥ बाँस पाश्रव कहे जिसमें से सोलहतो एकान्त सावैध हैं सों .मांठा कर्तव्य है इसलिये पापभाने के द्वार हैं बाकी च्यार प्राश्रवं अर्थात जोग मन वचन काय यह सावध मिरवध दोनूं है सो पुन्य और पाप पाने के द्वार हैं, तथा वसि आश्रवों में से मिथ्यात अनत प्रमाद और कषाय येह च्यार श्राश्रवतो सभाविक उदयं से हो रहे हैं और प्राणातिपात श्राश्रव से लेके सुचि कुशग आश्रव तक पंद्रह श्राश्रव हैं सो जोग आश्रव में गर्भित हैं अर्थात् हिम्सा कर सो जोग भाभव है यावत् सुचि कुशग सेवै सो जोग श्राश्रव है याने यह पंदरह जोगों की प्रेरिणा से होते हैं तथा पांचमां समुचय जोग आश्रव है सोजोगकर्तव्य सुभाविक भी होता है अर्थात् जहांतक सजोगी है तहांतक जोग आश्रव है, कर्मों का करता हैं सो जीव द्रव्य है और किये सो कर्म हैं वे अजीव हैं इस लिये कर्ता और कर्म यह दोनूं जुदे जुदे हैं। अब पाश्रव कैसे होता है सो कहते हैं-प्राणातिपात पाप स्थानक से लेके मित्थ्यादरशण शल्य ये अंठारह पाप स्थानक हैं सो च्यार स्पर्शिया पुद्गलों का पुल हैं सो अजीव है मोह कर्म के भेद है यह जब जीव के उदय
आते हैं तो जीव इनमें प्रवर्तता है तब अशुभ कर्म ग्रहण करता है जिस से जीव को आश्रृंव कहा है, जैसे जीव के प्राणातिपात पाप स्थानक उदय हुशा सो तो अजीव और उसमें प्रवसो जीव उदय भांव प्राणातिपात आश्रय है, ऐसे ही अट्ठारह को जाननां, तात्पर्य उदय और कर्तव्य यह दोनूं जुदे जुदे हैं इनको पृथक पृथक समझै यह श्रद्धा तो सुधी हैं और इन्हें येकही श्रद्धे यह श्रद्धा ऊंधी अर्थात् विरुद्ध है इसलिए न्याय दृष्टी करिके विचारणा चाहिये कि श्राश्रव है सो कर्म पाने के द्वार है, जीव के व्यापार हैं, और द्वारों में होके आने वाले कर्म हैं वे अजीव है, परंतु श्राश्रय द्वार जीव हैं, खोटे मन परिणाम, खोटी लेश्या, खोटे जोग व्यापार, खोटे अध्यवसाय, खोटे ध्यान है सो यह सब जीव परिक णाम है पाप आने के द्वार हैं, और भले मन पारणाम यावत मला