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अवल में सामायकं चारित्र आदरते हैं उनके मोहकर्म उदय रह नेस जो कर्तव्य करें जिससे पाप कर्म लगते हैं और मोइ कर्मका उदय भला ध्यान भली लेश्यासे घटा अर्थात् कमकरै तव उदयीक कर्तव्य भी हलके होत हैं, तव पाप भी हलके . लगते है, मोह कर्म को उपसमाने से उपस्म चारित्र और क्षय करनेस क्षाय. क चारित्र निपजता है तय किञ्चित् भी पाप नहिं लगता हैं अगा जवि निरमल शीतली भूत होजाता है, तात्पर सामायक चारित्र उदीर कर लेते हैं जिससे सर्व सावध जोगों को त्याग करते हैं और उपस्म तथा क्षायक चारित्र पचखने से नहीं पाता है, उपस्म चारित्र तो. सम्पूर्ण मोह कर्म को उपस्मान से और क्षायक चारित्र शुक्ल ध्यान ध्यान से सम्पूर्ण मोह कर्म को क्षय करै तय यथाक्षात चारित्र आता है सोबारवतेरवें चौदशगुण स्थान है,
और उपस्म चारित्र सिर्फ इशार में गुणस्थान ही है। चारित्र जीप का निजगुन है सो मोह कर्म अलग होने से प्रगट होता है चारित्र के गुनों से जीव मुनिराज हुश्रा है इस गुन के अंगट"हो. नेसे अनुक्रमे सर्व कमों से मुक्ति होजाता है, श्रीजिनेश्वर देवने चारित्र को जीव का निजगुन कहा है सो जीव से अलग नहीं हैं अर्थात् जीव के गुन है सो जीष है।
..... ॥ ढाल तेहिज ॥ चारित्रावरणी तो मोहणी कर्म छै । तिणरा अनेन्त. प्रदेश हो ॥ भ । तिणरा उदासू निज गुन विगंडिया। तिणसुं जीवने अत्यंत क्लेशहो ।। । म ॥ ॥ २८॥ तिण कर्मरा अनन्त प्रदेश अलगा हुवा । जब अंनन्त गुण उज्वल थायहो ॥भ ॥ जैन सावध जोग पचख्या छै सर्वथा ।