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८२३७ ) · · . पेजवा अनन्त हो ।भ ।। सूक्षम सम्परायरा उत्कृटा पजवा थकी । अनन्त गुणां कह्या भगवंतहो । भ॥ सं ॥ १४ ॥ यथा ख्यात चारित्र ऊजलो हूवो सर्वथा । तिण चारित्र रो थानक येकहो।। भ ॥ अनन्ता पजवा छै तिण थानक तणां । ते थानक छै उत्कृष्टो विसेखहो ।म।। ३४ ॥ मोहकर्म प्रदेश अनन्ता उदय हूवा । तेतो पुदगलरी पर्याय हो ॥भ ॥ ते अनन्ता अलगा हवां अनन्ता गुण प्रगटै । ते निजगुण जीवरा छै त्हायहो॥ भ । से ॥४४॥ तेनिजगुण जीवरा भाव जीवछै । ते निज गुण छै बंदनीक हो ॥भ ॥ तेतो कर्म खय हुवां सुनी पनां । भाव जीव कह्या त्यांन ठीक हो । भै ।। ।।सं १५॥
॥ भावार्थ ॥
• মিযী ঋথান অাৰি অনা যে কী चारित्रावरण जो मोहनीय कर्म है जिसके अनन्ते प्रदेश जीर्षके. उदयहोने से चारित्र मयी निज गुन खराव होरहा है जिससे जीधको अत्यन्त क्लेश है इसके अलग होनेले चारित्र गुनं अनन्तगुणा उज्वल होता है, सर्वथा प्रकार सावध जोगों को प्रत्याख्यान प्रक्षा से पचखने से सर्थव्रत निपजता है, संयमी होनेसे जीव उज्वल हवा सो तो निरजरा है, और संबर से नवीन पाप कर्म नहीलगे. सासर्घनत चारित्र, ज्यों ज्यों मोहनीय कर्म हलका अर्थात कम
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