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... . . भावार्थ .
: अब छट्ठा संघर पदार्थ कहते हैं श्रातम प्रदेशा कोलवर सो. संवर अर्थात् श्राते कर्मों को रोकना और जीवके प्रदेशोको स्थिर करना उसही का नाम संबर है, तात्पर जीवके प्रदेश कर्मोदय से चलाचल होते हैं तष नूतन कर्मों को ग्रहण करते हैं इसलिये आश्रवद्वार कहा है और वोही प्रदेशस्थिर होते हैं इसलियउन्हीं जीवके प्रदेशों का नाम संयर द्वार है, तबही कहना है कि संवर को यथातथ्य जाने विना संयर नहिं निपजता है, मुख्यपांच प्रका रके संबर हैं इन पांचोक अनेक भेद है सो विस्तार पूर्वक कहते हैं, १नय पदार्थों को यथा तथ्य श्रद्ध कर अयथार्थ श्रद्धने का त्या
गकरें सो सम्यक् संबर है। २-सर्व सावध जोगोंका त्याग कर अर्थात पाप करनेका श्रागार
किंचित् नहीं सब सर्च व्रत संबर होता है। ३-पाप कर्मके उदय से जीव प्रमादी है इसलिये प्रमाद 'आश्रय होरहा है, वोही प्राय उयस्म या क्षय होय.तव श्रममाद संघर होता हैं। ४-ऐसेही कवाय कर्म जिहांतक जीव के उदयह तहांतक कषाय 'श्राश्रव है, वोही कषाय कर्म प्रकृति जीधके प्रदेशों से अलग
होय.तय कषाय संबर होता है। ५-जोग भाश्रयके दो भेद हैं, अशुभ और शुभ योग, थोडे अशुभ
जोगों को या सर्वथा अशुभ योगों को संधने से अयोग संबर नहिं होता, अजोग संबर तो शुभ और अशुभ दाही प्रकार
के योग सर्वथा संधैं तब होताहै। .' उपरोक्ष पांचो संबर कहे सो जिसमें से सम्यक संबर और "बत संबर येहता ऊंधी श्रद्धने और सर्वथा सावध जोगों के त्याग करने से होताहै, और बाकी तीन संषर त्याग करनेसे होते नहीं अर्थात् स्वंता है। कर्मक्षय होनस होते हैं। . . . .