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॥ भावार्थ ॥
पुन्यं नव प्रकार से वंधता है और जीव उसे ययातीस प्रका र से भोगता है - पुन्य बंधने के नवबोल श्री ठाणांग के नव में ठा कहे हैं परंतु बुद्धिवान जनों को विचारणा चाहिए कि येह नव बोल कोनसे हैं और इन से पुन्य किसतरहे बंधता है, कोई कहते हैं नव घोल समुचै कहे हैं सावद्य निरवद्य या सत्रित अचित और पात्र कुपात्र का नाम उस जगह नहीं कहा है इसलिए सचित अचित दोनूं तरहें का अन्न सब को देनेसें पुन्य होता है, साधू श्रावक को देनेसे तो तिर्थकरादि पुन्य प्रकृति का बंध है और, वाकी को देते अनेरी पुन्य प्रकृति बंधती है, ठाणा अंग सूत्र में लिखा है ऐसा कहते हैं, जिसका उत्तर यह है कि ठाणां अंग सूत्र के मूल पाठ में तो कहीं भी ऐसा नहीं कहा है, किलो २ प्रति में अर्थ करने वालाने ऐसा अर्थ लिखा है सो जिन मांत से विरुद्ध हैं, अव्वल तो समुचै पाठ से यह अर्थ नहीं होसक्ला किन्न पुन्ने कहा तो अन्न सचित हो या ऋचित हो लेने वाला सुपात्र हो या कुपात्र हो अन्न के देनेसें हीं पुन्योपार्जन होता है यदि न पुने का उपरोक्त अर्थ समझा जाय तो उवाध्ययन में कहा है वंदना करनेसे नीच गोत्र को क्षय करिकै ऊंच गोत्र को बांधे, तो फिर इस जगह भी ऐसा लमझना चाहिए कि सबको वंदना करने से नोंच गोत्र क्षय होके ऊंच गौत्र का बंध होता है क्योंकि उस जगह भी किसी का नाम नहीं कहा है, और वैयावच करिनेस तिर्थकर गोत्र बांधै ऐसा कहा है तो इसका अर्थ भी वही हुषा कि सबको वैयावच करनेसे उत्कृष्ट भांगे तिथंकर गौत्र बंधता है, किन्तु नहीं नहीं नाम न श्राने से ये अर्थ कदापि नहीं हो सक्ता है, यहो क्या समुचे बोलतो शास्त्रों में अनेक आये हैं परंतु निरविवे: को जीवों को यथा तथ्य समझ नहीं पडती है इसलिए अर्थ की जगहें अनर्थ करिके जिन आज्ञा बाहर का कर्तव्य से धर्म पुन्य प्ररूपते हैं, परंतु विवेकी जांघों को विचारणा चाहिए कि ज्यो क्षेत्र सचित अचित सकल को दिये पुन्य होतो देखे हीं पाती.
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