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थाप्यां। .त्यां वीरनां बचन उथाप्या॥ ७१ ॥ गणा अंग तीजा गणा मंझार । जोगविर्य तणों व्यापार। तिणसुं अरूपी के भाव जोग । रूपी श्रद्धै ते श्रद्धा अजोग ॥ ७२ ॥ जोग प्रातमा जीव श्ररूपी । त्यां जोगांने कहै मुढरूपी । जोग भातमा जीव परिणाम । ते निश्चय श्ररूपीछे तांम ॥७३॥ श्राश्रव जीव श्रद्धावण ताहि । जोड कीधी पाली सहर माहि। अदार सह पचावन मंझारपासोज सुध बारस रविवार ।। ७१॥ इति ।।
॥भावार्थ ॥ . जीवके प्रदेश चंचल होते हैं तबही कर्मों के प्रदेशों को ग्रहण करते हैं उसही का नाम आश्रयह और स्थिर होके कर्मग्रहण नहीं करते उसका नाम संबर हैं, तात्पर निरजराफी करणी करते शुभ जोगांकी पर्सनासे जीव पुण्य उपारसन करताहे और मोहकर्मके उदय लें अशुभ जोगोंकी बर्तनों से जीष पापोंपार्जन करताह पुण्य या पापके प्रदेशों का पारजन करने वाले सीबके प्रदेश है उनही का नाम आवद्धार है, कर्मों का पारजन या करता करणी कारण हेतु और उपाय ये सब नाम श्राश्रय केही किन्तु जिनहों के घट में मिथ्यात्वमयी महा घोरान्धकार है उन्हों की श्रद्धा आधवको अजीव श्रद्धने की परंतु वोलोग यह नहीं धिचारतेहै कि जीवके अष्टकम अनादि कालसे लगाये हैं जिस में प्यार घातिक कौन जीव के अनन्त चतुष्टय गुनोंकी घात भरी हैं जिसमें मोह कर्म से जीव बिगडके अनेक तरह के कार्य करके अशुभ कर्म उपारजन करता है और कराता है इस ही लिये करता जीव का नाम भाभष है, चारित्रमोह के उदय से नीय