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(६८) ज्ञान दरिशन चारित्र तप लाभ न सके वले लाभ न सकै शब्दादिक काई ॥पा॥३८॥ भोगाअंतराय कर्म उदयसें, भोगमिल्या भोग भोगवणी न श्रावै । उपभोग अंतराय. कर्म उदयसं, उपभोग मिल्या ते भोग्या नहीं जावै ॥ पा ॥३६॥ वीर्य अंतराय कर्म उदयथी, तीनही बीर्य गुणा हींगा थावै उठाणादिक हीणां थावे पांचूँही, जीवरी सक्ति जावक घट जावै॥ पा॥४०॥ अनन्त वल प्राक्रम जीवतणों छ, तिणने येक अंतराय कर्म घटायो। कर्म में जीव लगायो जव लाग्यो, आपरो कियो आपतणे उदय प्रायो॥पा॥ ११॥ पांचूं अंतराय जीवतणां गुणदाच्या, जेहवागणदाव्या तेहवा कर्मारानाम । ये तो जीवरै प्रसंगै नाम कौरा, पिण स्वभाव दोनांरा जुदा २ ताम ॥ पा ॥४२॥
॥ भावार्थ ॥
मोहनीय कर्म के दो भेद हैं जिसमें दरिशन मोहनीयं की ३ प्रकृति और चारित्र सोहनीय को २५ प्रकृति है सो जैतीरप्रकृति उदय पाती है उसवल वैसाही नाम जीव का ओर वैसाही नाम उन प्रतियों का है जैसे अनन्तानुचंधीया क्रोध की प्रकृति उद , य आई तव जीव अत्यंत क्रोधातुर होके दुष्टकार्य करता है यह क्रोध जावजीव पर्यंत रहता है इसके उदय में सम्यक्त्व चारित्र । का सर्वतः अभाव है, उदय आई सो प्रकृति अजीव है और उस