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प्रत्याख्यानी
are alive आत्मा जीव हैं सही तरह अनन्तानुवधिया मान माया और लोभ जानना, जिससे कुछ कम • चौकडी जिसके उदय में प्रत्याख्यान अर्थात् पचख्खान याने चा रित्र का अभाव है, जिससे कुछ फस प्रत्याख्यान की चोकडी जि सके उदय में सर्व व्रत चारित्र का अभाव है, और जिससे कम संग्वल का क्रोध मान माया लोभकी चोकडी है जिसके उदय में क्षायक चारित्र यथाक्षात संयम का अभाव है यह सोलह (१६) कषाय है इनके उदयसे जीव का नाम कषायी अर्थात् कषाय श्रा त्मा है, तात्पर क्रोध प्रकृति से जीव क्रोधी मान की प्रकृति से मानी, माया की प्रकृति से मायी और लोभ की प्रकृति से लोभी कहलाता है, अव बाकी नव प्रकृति रही सो कहते है हांस्य प्रकृति के उदय से जीव को हास्य आता है, रति प्रकृति से प्रिय पुद्गलादि से रति होती है, अरति की प्रकृति से अमिय पुद्गलादि से अरति होती है, भय प्रकृति से भय होता है, सोग प्रकृति से लोग, और दुगंछा प्रकृति से विदगंछा आती है स्त्रीवेद उदय से जीय स्त्रीवेदी हो के पुरुषकी श्राभिलाषा पुरुष बेदके उदय से पुरुष वेदी होके खोकी अभिलापा करता है, और नपुंसक वेदके उदय से नपुंसक बेदी होके दोनूं की अभिलाषा करता है । मिथ्यात्व के उदयसे जीव मित्थ्यात्वी होता है और चारित्र मोहनीय के उदय से जीम कुकरमी हिन्सा धर्मी होता है । चोथा घनघातिक अंतरा
कर्म है सो जिसकी पांच प्रकृति है सो तो च्यार स्पर्शी पुद्ग• लों का पुत्र है जिन्हों के उदय से जीवके जैसे २ गुन दबे हैं वैसे ही प्रकृतियों का नाम है- दाना अंतराय से दानी परों का गुन दधा है, लाभान्तराय से वस्तु का लाभ नहीं होता है तथा ज्ञाम दरि० शन चारित्र तपका लाभ नहीं होता है अथवा शब्द बणे गंध रसस्पर्श का भी लाभ नहीं होता है, भोग अन्तराय कर्मोदय से मिले हुवे भोग भी भोगे नहीं जाते हैं, उपभोग अन्तराय कर्म के उदय से मिले हुये उपभोग भी नहीं भोग संक्ता है, धीयं अंतराय कर्म उदय से तीनूं वीर्य उठाए कम्मवल वीर्य पुर्णकार प्राक्रम की हानी होती है, तथा अत्यंत निर्बल होजाता है, अनन्त वल प्राक्रम जीव के हैं उन्हें सिर्फ अंतराय फर्म ही घटाया है जैसा जीवात्मा फर्म
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