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।। भावार्थ ॥
जैग सिद्धान्तोमें जगह जगह श्राश्रवद्वार का वर्णन विस्तार पूर्वक कहा है सो स्मपूर्ण कहांतक कहें सारांस सबका येक यही है कि आभवहार हैं लो जीवके परिणाम है जीधके परिणामोंको अजीव कहैं उन्हें मित्थ्याती जाममां, भगवान तो सत्रों में फरमाया है कि कमों को प्रहण कर सो आश्रय है इसलिय धुद्धिधान जनोंको विचारणा चाहिये कि कर्मों को ग्रहण कोन करता है और ग्रहण क्या होते हैं, जीव ग्रहण करता है तब पुन्य पाप मयीं पुद्गल प्रहण होता है, करता है सोही आश्रव है प्रथमान में कहा है जीव कौका करता ती काल में है, करता करणी हेतु उपा. थ यह फाँके करता है इनसे कर्म लगते हैं इसही लिये इन्होंको जिनेश्वर देवाने आश्रय कहा है, तथा सावध करणी स पाप लगता है लावध करणी है सोही जीव है और उसहीका नाम प्रा. श्रय है, लेश्या कमसि श्रात्म प्रदेशोंको लेशती है अर्थात् लिप्त करती है तथा मन वचन काया के जोगासें कर्म लगते हैं सो जोमाश्रय कहा है उसही को जोग श्रातमा कही है करन करावन अनुमोदन इन तीनूंदी करणों से जीव कर्म करता है और करता है सोही प्राश्रव है, जोग सावध निरवध दोनें प्रकारके है सो जीव है सावध जोगासे पाप और निरयध जोगास पुन्य ग्रहण होता है. आश्रय मुख्य पांच प्रकारके कहे है-मित्थ्यात अर्थात् विरुद्ध श्रद्धाआश्रय अनत पाश्रव २ अत्यागमाघ, प्रमाद श्राश्रव ३ फपाय अर्थात् क्रोध मान माया लोभ आश्रय ४ जोग अर्थात् मन बचन कायाको प्रवर्तना सो श्राश्रव ५ तथा हिन्सा भूठ चौरी मैथुन परिग्रह ये पांच आव और अनत इनको सांठी लेश्या के परिणाम कहे हैं मांठी लेश्या जीव है तो उसके परिणाम अजीव कसे हो सका है मांठी लश्या के परिणामों को तथा लक्षणों को अजीव कहैं उन्हें मिथ्यात्वी जानना, च्यार संशा पापका उपाय है सो जीव है भले और खराब जीव के परिणामों से ही पुन्य और पाप ग्रहण होता है ग्रहण कर उसहीका नाम आश्रव है, ऐसेही
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