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(७८) ग्रंहादि अनेक बस्तुयोंके देने से पुग्य.कदापि नहीं होता है साधू बिना संसारी जीवोंको देना लेना संसारिक व्यवहार तथासापथ कञ्चन्य है जिसकीोजिनेश्वर तथा पंच महाव्रत धारी शुद्ध साधू. आक्षा नहीं देते हैं और प्राज्ञा पारका कर्तव्यों से धर्म पुन्य नहीं होता है, जिन आक्षा बाहरका दानसे तो पापही होता है, संसार में संसारी जीष परस्पर अनेक तरह से देन लेन करते कराते हैं परन्तु संसारिक मार्ग है मुक्ति मार्ग नहीं है। प्रियवरो पुन्य है सो शुभ कर्म है और कर्म है सा मुक्ति पदको बाधा देने घाला है पुन्य पाप दो को क्षय करने से मुक्तिपद मिलता है, पुन्यके सुख तो कारमें है विनाल रोते देर नहीं लगती है इसलिए यदि ज्यो तुम्हें भवोदधि से पार उतरना है तो पुन्यको पान्छा मत करो निकेवल मोठाभिलाषी होके मिरवध करणी करों जिससे पूर्व संचित पाप कर्मोंकी मिरवरा होके सिवपद जलद पावोगे; सम्बत् अठारह सह तयांलीस की सालमें कार्तिक सुदि चौथ गुरुवार को पुन्य निपजने का उपाय ढाल जोडके स्वामी श्री भीखनजी मेवाड देशान्तरगत कोठारचा प्राम में कहा है। इति पुन्योपारजनको करणी की दालका भावार्थ मैंने मेरी तुच्छ बुद्धया 'नुसार किया है इसमें कोई अशुदार्थ आया हो इसका मुझे नि. विध २ मिच्छामि दुकडं है।
श्रापका हितेच्छ
श्रावक गुलाबचन्द लूणिया ॥अथः चतुर्थम् पाप पदार्थम् ॥
॥दोहा॥ - पाप पदार्थ पांडवो, ते जीवने घणों भयंकार । ते घोर रुद्र निहामणो, जीवन दुःख तणो दातार ॥१॥ ते पापं तो पुद्गल द्रबछ, त्यांने जीव लगाये