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(५४) ज्यो युगलियादिक तिर्यचौकी गति और अनुपूर्त है सो पुन्य की प्रकृति ही है फिर निश्चय झानी कहै घोह सत्य है, पहिला संघयण बिना व्यार संघयणों में तथा पहिला संस्थान बिना व्यार संस्थानों में भी पुन्य प्रकृति का मेल मालुम होता है निश्चय ज्ञानी कहै सो संत्य है, क्योंके ज्यो२हड्डियां पहिला संशय णकी हैं, वैसी वाकी च्यार संघयणों में भी होती हैं उन्हें एकान्तिपाप प्रकृति ही नहीं कहसकते हैं, और ज्यों श्राकार पहिला संस्थान का है उसही तरह के संस्थान बाकी च्यामि हैं वो भी एकान्ति पाप प्रकृति ही नहीं हैं उन्हें पाप को प्रकृति कहना यहन्याय नहीं मिलता है। . और चौथा पुन्यकर्म ऊंच गौत्र है सो उनके उदय से उव्य पदवी पाते हैं ज्यो मनुष्य और देवता निरलान्छनी हैं वो स्वच्छ जाति हैं सो ऊंच गौत्र कर्म के उदय से हैं, तात्पर्य यह कि ज्यो२ गुन जीव के शुभ पणें हैं वैसाही नाम जीवका है सो जीवहै और वोही नाम पुद्गलोंका है सो अजीव पुन्य कर्म हैं पुद्गलों के संयोग से ही जीवके अच्छे २ नाम कहे जाते हैं इससे उन पुण्य मयी पुद्गलों का नार भी अच्छे २ हहैं। ...... ॥ढाल तेहिज ॥
जीव शुद्ध हुो पुद्गलथकी, तिणसं रूडा २ पाया नाम हो लाल जीवनें शुद्ध कीधो छै पुदगला,त्यांरा पिण छै शुद्ध नाम तामहो लाल||पुन्य।। ३३॥ज्यांपुद्गलां तणां प्रसंगथी जीव बाज्यो संसार में ऊंच हो लाल । ते पुद्गल पिण ऊंचा बाजी . या तिणरो न्याय न जाणे च हो लाल ॥पुन्य। ३४ ॥ परी तीर्थकर चक्रिवर्ततणी, भासुदेव बलदेव .