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(२६) ज्नंरो ज्यूं रहैसीसोय ॥ ३७॥ते तो छेद्यो न कदै छेदावै, भेद्यो पिण कदे नांही भेदावै ।जाल्यो पिणजलै नाही, बाल्यो पिण न बलै श्रमि मांहि ॥ ३८॥ काटयो पिण कटै नहीं कांई, गालै तो पिणं गले नाही। बांटै तो पिण नहीं बँटाय, घसै तो पिण नहीं घसाय ॥ ३९ ॥ द्रव्ये असंख्यात प्रदेशी जीव, नितरो नित्य रहै सदीव । ते मारयो पिण मरै नाहि, बले घटै बधै नहिं कोई ॥ ४० ॥ द्रव्यतो असंख्यात प्रदेशी, ते तो सदा ज्यूरो ज्यूं रहसी । एक प्रदेश पिण घटै नाही, ते तोतीनूंही कालरेमाहि।।४१|| खंडायो पिण नखडै लिगार, नित्य सदा रहै एक धार । एहवोछै द्रव्य जीव अखंड, अखीथको रहै इण मंड॥ ४२ ॥
॥ भावार्थ ॥
दृव्यतः जीव सास्वता है याने जीव का अजीव तीन काल में कभी भी नहीं होता है; जीव को छेदने से छेद्र नहीं होता है भेदने से भेद नहीं होता है, जलानेसे जलता नहीं बालने से वलता नहीं काटने से असंख्याता परदेशों के टुकड़े टुकडे नहीं होते गालने से गलसा नहीं, पीसने से पिसता नहीं, घसने से घसता नहीं, असंख्यातप्रदेशों में से कमी बेसी किसी काल में होती नहीं और एक जीव के प्रदेश दुसरे जीव में नहीं मिलते हैं अरूपी अभेदी अछेदी है, ऐसा जीव दृश्य असंख्यात प्रदेश मयी स्वतंत्र