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(३०) कर्मों को रोकै वो संघर भाव जीव है, देशतः कर्म तोड दे. शतः जीव उज्वल होय वो निर्जरा भाव जीव है, सर्वतः कर्मों को मुंकावे थाने छांडै वो मोक्ष भावजीव है, शब्दादिक काम भोगों का वियोग को बांछे सो संवर भाव जीव । और कर्म रुके वो जीव । शब्दादिक काम भोगों का वियोग न बांछे वो आश्रय भाव
यि । कम लगे वो अजीव है, जीव देशतः जीव उज्ज्वल होय वो निर्जरा और असणादि द्वादश प्रकार से कम निर्जरे वो निरा की करणी है निर्जरा और निर्जरा की करणी यह दोनों ही जीव को आदरणयोग्य है। जीष इन्द्रीयों के काम भोगों से धाराममा. ने यो संसार से सन्मुख है इसलिए जीवका नाम श्राश्रव है, और काम भोगों से विरत रहै वह संसार से विमुख है इस लिए जी. धकां माम संबर है। जीवका सावध कर्तग्य अनार्य पणा है उससे कर्म बंधते हैं उस करणो का नाम आश्रव है । सो भाव जीव है। जिन प्राज्ञा प्रमाण कार्य कर्ता है वो सुविनीत भाव जीव और जिन श्रीक्षा लोप के कुरीत चलै वो अनीत भाव जीव है, । सू. वीर पुरुष संसार में संग्राम करते हैं किसी के डराये डरते नही वो संसारिक सुरवीर भाव जीव हैं, और कर्म मची शको नाशकरते हैं वे सच्चे धार्मिक भावजीव हैं, तात्पर्य यह है कि असंख्यात प्रदेश अखंड है वो हव्य जीवसदा सर्वदा सास्वता.है याने जीव दृव्य का अजीब हव्य कभी भी नहीं होता है और उसीके गुण पर्याय हैं वो भाव जीव हैं वो असास्वता है इनको 'यथार्थ जैसे ज्ञानी देवों ने जिस जिस अपेताले कहा है उस ही तरह से जान के सत्य श्रद्धो, जीव पदार्थ को हव्यतः और भा. वतः ओलखाने के लिए स्वामी श्री भीखनजीने विक्रम संवत् १८५५ चैत चुद १३ को मेघाड देशान्तर्गत श्रीनाथद्वारा में ढाल जोड के कहा है इस का भावार्थ मैंने मेरी तुच्छ बुद्धि श्रनुसार कहा है सो कोई अशुद्धार्थ जाणते अजाणते पाया हो उसका मुझे सर्वतः मिच्छामि दुकडं है गुणीजन शुद्ध पढ़ें पढाबमे
आपका हितेच्छू ... जौहरी गुलाबचन्द लूणीयां .