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णमो सिध्दार्ण पद : समीक्षात्मक परिशीलन ।
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पंच-महाव्रत : चातुर्याम धर्म
पंच-महाव्रत और चातुर्याम-धर्ममूलक देशना-भेद का आधार जनता का मानसिक स्तर रहा है। भगवान् ऋषभदेव के समय के लोग बहुत ऋजु (भोले) और जड़ (सरल) थे। उनको भलीभाँति अलग-अलग समझाने के लिए प्राणातिपात विरमण- अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों का आख्यान किया गया तथा ब्रह्मचर्य को एक पृथक् महाव्रत के रूप में व्याख्यात किया गया। अपरिग्रह के साथ इसे मिला देने से उस समय के भोले और सरल लोग संभवत: भलीभाँति समझ नहीं पाते। भगवान् महावीर के समय के लोग बहुत वक्र (चतुर) और जड़ (चालाक) हो गये थे। इसलिये उन्हें वन-जड़ कहा गया है। वैसे लोग कोई प्रतिकूल मार्ग न निकाल लें, व्रतों में कमी न आ जाय, इसलिये उस समय भगवान् ने प्रथम तीर्थंकर के समान पाँच महाव्रतों के रूप में ही धर्म उपदेश दिया।
द्वितीय से तेबीसवें तीर्थंकर तक के समय के लोग ऋजु (सरल) थे और प्राज्ञ (बुद्धिमान) भी थे। जो जैसे भाव हों, उनको उसी रूप में समझने और स्वीकार करने में वे कुशल थे। इसलिये मध्य के इन बाईस तीर्थंकरों ने चातर्याम संवर की देशना दी। अर्थात् उन्होंने अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह इन चार महाव्रतों का उपदेश दिया। स्त्री को परिग्रह के रूप में स्वीकार कर लिया गया। अत: अपरिग्रह के अंतर्गत धन, संपत्ति, वैभव, आदि के त्याग के साथ-साथ स्त्री का त्याग भी गृहीत हुआ। इस प्रकार चार यामों में पाँचों महाव्रत समाविष्ट हो जाते हैं।
आचार्य श्री हस्तीमलजी ने 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास', प्रथम-भाग में चातुर्याम धर्म के उद्गम, प्रवर्तन तथा बहिद्धादान नामक चौथे याम के अंतर्गत ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के समावेश पर |विशेष रूप से प्रकाश डाला है।'
___महासती श्री उज्ज्वलकुमारीजी ने सत्य, अहिंसा, अस्तेय एवं अपरिग्रह का सैद्धांतिकता के साथ-साथ वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में विस्तृत वर्णन किया है, जिससे इनकी सार्वजनीनता, सार्वकालीन उपयोगिता सिद्ध होती है। ___ याम शब्द भी व्रत का ही द्योतक है। 'याम' शब्द महर्षि पतंजलि द्वारा प्रयुक्त यम शब्द के सदश है। उन्होंने भी इसका 'व्रत' के अर्थ में प्रयोग किया है।
भगवान् महावीर द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन
भगवान् महावीर के लिए जैसा पहले कहा जा चुका है, वे इस अवसर्पिणी काल- वर्तमान युग
१. जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम-भाग, पृष्ठ : ४९७. २. उज्ज्वल-वाणी, पृष्ठ : ५४-८५.
३. योग-सूत्र, साधनपाद, सूत्र-३०.
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