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सिद्धत्व पर्यवसित जैन धर्म दर्शन और साहित्य
उत्सर्पिणी के रूप में दो प्रकार का कालचक्र स्वीकार किया गया है। जिस प्रकार रथ के चक्र या पहिये के आरक लगे रहते हैं उसी प्रकार प्रत्येक कालचक्र को छह भागों में बांटा गया है।
उत्सर्पिणी काल में सभी वस्तुओं का उत्तरोत्तर उत्कर्षण या उन्नयन होता जाता है। अवसर्पिणी में सभी पदार्थों में उत्तरोत्तर अपकर्ष - न्यूनता या कमी आती जाती है । इस समय अवसर्पिणी नामक कालचक्र का पाँचवाँ आरा चल रहा है । यह कालचक्र अनादि काल से चलता आ रहा है । अनंत अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी काल व्यतीत हो चुके हैं । वस्तुतः काल का कोई अंत नहीं है । "
वर्तमान अवसर्पिणी के तीसरे चौथे आरक में चौबीस तीर्थंकर हुए, जो निम्नांकित हैं :
१.
४.
७.
१०.
१३.
१६.
श्री ऋषभदेव
श्री अभिनन्दनस्वामी
श्री सुपार्श्वनाथ
श्री शीतलनाथ
श्री विमलनाथ
श्री शांतिनाथ
श्री मल्लिनाथ
श्री नेमिनाथ
२.
५.
८.
श्री अजितनाथ
श्री सुमतिनाथ
श्री चंद्रप्रभ
श्री श्रेयांसनाथ
श्री अनंतनाथ
१. (क) जैन तत्त्व प्रकाश, पृष्ठ ८४.
२. ( क ) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र, २, २४
११.
१४.
१७.
श्री कुन्थुनाथ २०. श्री मुनिसुव्रतस्वामी २३. श्रीपार्श्वनाथ
श्री संभवनाथ
श्री पद्मप्रभ
श्री सुविधिनाथ
१९.
२२.
श्री जैन - सिद्धांत - बोल - संग्रह, भाग-६ में चौबीस तीर्थंकरों के च्यवन, विमान, जन्म-स्थान, जन्म, मातृ-पितृ नाम, लांछन एवं शरीर प्रमाण आदि का उल्लेख है।
३.
६.
९.
१२. श्री वासुपूज्यस्वामी १५.
श्री धर्मनाथ
तीर्थंकरों की ऐसी अनंत चौबीसियाँ हो चुकी हैं और होती रहेंगी । "
तीर्थंकर अपने युग में 'धर्म तीर्थ' की स्थापना करते हैं और धर्म की देशना देते हैं। यद्यपि अर्थ-रूप में या तत्त्वरूप में भिन्न-भिन्न तीर्थंकरों की धर्म देशना में कोई अंतर नहीं होता किंतु धर्मोपदेश की सिद्धांत निरूपण की शब्दात्मकता अपनी-अपनी होती है।
३. ( क ) यंत्र-मंत्र-तंत्र विज्ञान, भाग-२ पृष्ठ: ३४.
४. श्री जैनसिद्धांत बोल संग्रह, भाग-६, पृष्ठ १७७,१८७.
१८.
श्री अरनाथ
२१. श्री नमिनाथ
२४. श्री महावीर स्वामी
प्रथम और अंतिम तीर्थंकर की देशना पंच महाव्रतात्मक होती है और द्वितीय से तेबीसवें तक तीर्थंकरों की चातुर्याम-संवरमूलक धर्म देशना होती है । इसका अभिप्राय यह है कि वहाँ ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह में स्वीकार कर लिया गया है।
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(ख) जैनागम स्तोक संग्रह पृष्ठ १४५. (ख) स्थानांग - सूत्र ६, २३-२४ पृष्ठ : ५४०. (ख) आगम के अनमोल रत्न, पृष्ठ २-२५२. ५. बड़ी साधु वंदना, पद- १.