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णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
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का असीम आदर है। अपने सिद्धांतों की सार्वजनीनता, उदारता, व्यापकता तथा असंकीर्णता के कारण यह धर्म ही एक ऐसा माध्यम है, जो समस्त मानव जाति को एकता के सूत्र में आबद्ध कर सकता है।
जाति, वर्ण, वर्ग तथा संप्रदाय के संकीर्ण भेदों से सर्वथा अपराभूत यह धर्म आत्म-साधना का एक महान् राजपथ है, जिस पर बिना किसी भेद-भाव के सभी जन आगे बढ़ सकते हैं और जीवन में शांति प्राप्त कर सकते हैं। जैनों का धर्म-प्रसार में औदासीन्य
इतने उच्च, उदार, विश्वजनीन, सर्वकल्याणकारी, युक्ति-न्याय-संगत सिद्धांतों को विश्व में जिस रूप में पहुँचाया जाना चाहिए, वैसा जैनों द्वारा अब तक विश्वव्यापी आंदोलन या प्रसार नहीं किया गया, यह अत्यन्त खेद का विषय है।
जिस प्रकार भगवान् महावीर का युग हिंसा के घोर विकराल तांडव से व्याप्त था, उसी प्रकार आज का युग भी भौतिकता, लोकैषणा, स्वार्थपरायणता, संग्रहात्मकता, वैमनस्य और क्रूर भावनाओं की दावाग्नि से पूरी तरह दग्ध हो रहा है। इस समय अहिंसा, विश्वमैत्री एवं समतामूलक सिद्धांतों के प्रसार की नितांत आवश्यकता है। दूसरी ओर खेद की बात यह है कि इस धर्म के गहन, सूक्ष्म-दर्शन को भलीभांति समझने का प्रयत्न भी वे नहीं करते, जो जैन नाम से अभिहित होते हैं। अत एव आज सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की है कि जन-जन को जैन सिद्धांतों का परिचय हो।
प्रस्तुत शोध-ग्रंथ का विषय णमो सिद्धांण' है। सिद्धों को नमन, प्रणमन में सिद्धत्व की गरिमा और महिमा का संसूचन है। यह आवश्यक है कि जिस धर्म-दर्शन का इतिहास एवं परंपरा सिद्धत्व पर अवस्थित है, उस पर संक्षेप में समीक्षात्मक दृष्टि से प्रकाश डाला जाय, जिससे मूल विषय को पुष्टि मिलेगी तथा उसकी पारिपार्श्विक स्थितियों का विशेष रूप से परिचय प्राप्त होगा। जैन धर्म का अनादि स्रोत
जैन धर्म कब प्रारंभ हुआ? सबसे पहले इसकी किसने स्थापना की? इस संबंध में कोई समाधान या उत्तर नहीं दिया जा सकता क्योंकि धर्म का यह स्रोत अनादि माना जाता है। अनादि का तात्पर्य है-- जिसकी कोई शुरूआत या प्रारंभ नहीं है। कुछ स्थानों पर इतिहास की पुस्तकों में यह भूल भी होती रही है, जहाँ भगवान् महावीर को जैन धर्म का प्रवर्तक बतलाया गया है। वास्तव में भगवान् महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं थे, वे वर्तमान युग के अंतिम तीर्थंकर थे। उन्होंने-धर्म देशना दी तथा साधुसाध्वी-श्रावक-श्राविका के रूप में चतुर्विध धर्म-संघ की स्थापना की। जैन दृष्टि के अनुसार अवसर्पिणी,
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1१. श्री जिन भक्ति कल्पतरू, पृष्ठ : ६०.
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