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उदयपुर में सीढ़ियों से गिर जाने से दोनों पैरों में फ्रेक्चर हुआ। किसी प्रकार का पक्का पट्टा या प्लास्टर नहीं बंधवाया। पैर ठीक नहीं हुए, प्रारम्भ में तो बिलकुल चलना नहीं हुआ। उस समय लगातार ३ वर्ष तक उदयपुर में रहकर 'तिलोयपण्णत्तो' जैसे महान ग्रंथ की टीका की। बाद में २-२, ३-३ कि.मी. चलकर विहार शुरू किया। चलने से पैरों में बहुत पीड़ा होती थी परंतु विहार के लिए अन्य किसी साधन को उपयोग में नहीं लिया। अंत तक थोड़ा-थोड़ा पैदल विहार करके ही अपनी साधना को समाप्त किया। अपने संकल्प पर दृढ़ रहे।
__ शरीर की कमजोरी के कारण ज्यादा उपवास आदि नहीं कर पाते थे, इससे हमेशा यही कहते थे कि १२ वर्ष की उत्कृष्ट सल्लेखना तो मैं कभी नहीं लूंगी पर ६० वर्ष की अल्पवय में भीतर से आत्मा की ऐसी आवाज आई कि उसी समय पू. माताजी ने प. पू. आचार्य अजित्तसागर जी महाराजश्री के पास १२ वर्ष की सल्लेखमा को ग्रहण किया। पूज्य माताजी ने पूरे संयमी जीवन में अपने व्रतों में लगे हुए संपूर्ण दोषों की आलोचना अत्यन्त सरलता से बिना कुछ छिपाये यथावत् पूज्य आचार्य अजितसागर जी महाराजश्री के सामने की। प. पू. आचार्यश्री को इतनी विस्तृत आलोचना सुनकर प्रसन्नता हुई।
सल्लेखना ग्रहण करते ही लक्ष्य बदल जाने से दृष्टि बदल गई। त्याग-तप वृद्धि में क्षमता बढ़ गई। उत्कृष्ट सल्लेखना के काल में निर्यापकाचार्य निकट नहीं होते हुए भी पूज्य माताजी अपनी साधना के प्रति सजग रहते थे। कभी कोई छोटी सी गलती हो जाती या मन में कोई ऐसे परिणाम बन जाते तो पूज्य माताजी मुझे तुरन्त कह देते थे। मैं कहती कि माताजी मैं तो बहुत छोटी हूँ, आप मुझे क्यों कहते हो? वे कहते थे कि छोटे हो या बड़े, दूसरों को कह देने से मन का भार हल्का हो जाता है।
सल्लेखना के अंतर्गत आत्म-संस्कार काल के अंतिम वर्ष में त्याग और तप की अभिवृद्धि के कारण शरीर अत्यन्त कमजोर हो गया था। इस समय उपयोग की एकाग्रता के लिए पू. माताजी ने योगसार प्राभृत जैसे क्लिष्ट ग्रंथ की प्रश्नोत्तर रूप में टीका की। इसके पश्चात् मरणकण्डिका ग्रंथ का स्वाध्याय किया, उस समय आपको ऐसा लगा कि इस ग्रंथ को प्रश्नोत्तरी टीका के रूप में लिखने से प्रतिसमय परिणामों को सँभालने का अवसर मिलेगा। ग्रंथ में प्रतिपाद्य विषय को वर्तमान में जीवन में उतारने का समय है। संयमरूपी मंदिर के शिखर पर समाधिमरण रूपी कलश चढ़ाते समय कहीं फिसल न जाए | इस भावना को लेकर पज्य माताजी ने ६-७माह पर्व इस ग्रन्थ को 'भगवती आराधना'की विजयोदया टीका के विषय को साथ में रखकर प्रश्नोत्तर टीका के रूप में अपने परिणामों में अत्यन्त जागरूकता बनाये रखने के लिए लिखना प्रारम्भ किया। लिखते समय पूज्य माताजी को अत्यन्त आह्लाद का अनुभव होता था। मैं तो प्रत्यक्षदर्शी थी। उनको ऐसा अनुभव आता था कि निर्यापकाचार्य ही मेरे प्रत्यक्ष बैठकर प्रति समय मेरा मार्गदर्शन कर रहे हैं, संबोधन दे रहे हैं। महापुरुषों की कथाओं के माध्यम से अपना साहस और धैर्य बढ़ाया, बारह तपों में सबसे महान् ध्यान तप को बढ़ाने का अभ्यास किया। दिन में लेखन और रात्रि में अत्यन्त शांत एवं एकांत वातावरण में पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान के माध्यम से अपनी आत्मा के निकट पहुँचने का पुरुषार्थ किया। णमो मणबलीणं, णमो वयबलीणं, णमो कायबलीणं आदि