Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Shrutoday Trust Udaipur

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Page 18
________________ .१८. अखंडरीत्या पालन करने वाले मुनि के चारित्र आराधना होती है। एक-एक व्रत की पाँच-पाँच भावना रूप २५ भावनाओं को भाने वाला मुनि सुप्त अवस्था में भी व्रतों का घात नहीं करता है, जाग्रत अवस्था में तो कैसे कर सकता है ? परंतु कषायों और इन्द्रियों के वश में रहने वाला मुनि सब के द्वारा दूषित होता हआ हँसी का पात्र होता है और उसका सारा ज्ञान नष्ट होता है। सारणादि अधिकार में हित, मित एवं प्रिय वचन बोलनेवाले निर्यापक बिना विश्राम के क्षपक को शिक्षा देते हैं, जिससे यथोक्त तप करता हुआ क्षपक कर्मों की बड़ी भारी निर्जरा करता है। आचार्य क्षपक को बार-बार धर्मस्नेह से सावधान करते हैं और व्रतादि का स्मरण दिलाते हैं। चारों गतियों के दुःखों का वर्णन सुना कर वर्तमान में थोड़े से कष्ट सहने के लिए धैर्य दिलाते हैं। "आपने चारों गतियों में परवशता से महावेदना सहन की, अब धर्मबुद्धि से अपनी स्वाधीनता पूर्वक अल्प दु:ख को समता भाव से सहन करना है।" यहाँ विशेष बात कही है कि संयमी साधु का मरण हो जाना श्रेष्ठ है परंतु वेदना को शांत करने के लिए अप्रासुक औषधि का सेवन कदापि योग्य नहीं है। ध्यानादि अधिकार में नेत्रों को परवस्तु से हटाकर नासाग्र दृष्टि से मन को एकाग्र करके अपनी आत्मा में विचार लगाकर के मुक्ति-प्राप्ति का विचार करने की शिक्षा दी है। बारह भावनाओं के वर्णन के अन्तर्गत अन्यत्व भावना में कहा है कि संसारी मोही प्राणी एक दूसरे को दुःख से आकुलित देखकर दुःखित होता है, शोक करता है। स्वयं का आत्मा जन्म-मत्यु के दुःख से युक्त होता है, नरकादि में दुःख पा रहा है उसका शोक क्यों नहीं करता है ? ध्यान को महत्त्व बताया है कि करोड़ों वर्षों में होने वाली कर्मनिर्जरा ध्यानस्थ साधु के अन्तर्मुहूर्त में होती है। अंत में, जो भव्य जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप रूप चार आराधनाओं का उत्कृष्ट रूप से सेवन करते हैं वे उसी भव से मुक्त होते हैं। जो मध्यम रूप से सेवन करते हैं वे तृतीय भव में तथा जघन्य रूप से आराधनाओं का सेवन करने वाले सातवें भव में मुक्त होते हैं। इस प्रकार आराधना का माहात्म्य बताकर उसका अंतिम फल बताया है। चारित्तं खलु धम्मो' कुन्दकुन्दाचार्य के इस सूत्र को जीवन में चरितार्थ करने की उत्कृष्ट भावना के फलस्वरूप ३५ वर्ष की अल्पवय में स्त्री पर्यायोचित उत्कृष्ट आर्यिका व्रत, ग्रहण करके पूज्य आर्यिका विशुद्धमती माताजी ने सर्वप्रथम साधु-आचार संबंधी मूलाराधना ग्रंथ का चिंतन-मननपूर्वक अध्ययन किया। प्रारम्भ से ही अपनी चर्या को आगमानुसार एवं गुरु-आज्ञानुसार बनाने का प्रयास किया। पूज्य माताजी हमेशा यही कहते थे कि अंतरंग परिणामों को तो आत-रौद्र आदि अशुभ ध्यानों से बचाना ही है परंतु हमारी बहिरंग क्रिया भी आगम के विपरीत न हो जिससे धर्म और धर्ममार्ग के प्रति अश्रद्धा के भाव पैदा न हों। पूज्य माताजी की अपने अन्तरंग परिणामों की ओर पैनी दृष्टि रहती थी एवं उनकी बहिरंग क्रिया इतनी अनुशासित थी, जो हम जैसे अज्ञानियों के लिए अनुकरणीय थी। पूज्य माताजी की चलने, बैठने, सोने, बोलने आदि की सभी क्रियाएँ गम्भीरता की सूचक थीं। संयमी जीवन के अंत तक पूज्य माताजी ने अपनी संपूर्ण क्रियाओं का दृढ़ता से पालन कर अपनी गुरुपरम्परा के गौरव को वृद्धिंगत किया।

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