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卐 दो शब्द संसार की प्राय: सभी धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं में जीवन को सँवारने की और शान से जीने की विधियों का बार-बार की किमाया है। जीवन को एक कला माना गया है पर मृत्यु की हर जगह उपेक्षा की गई है। कलाओं की लम्बी तालिका में मरने की कला का नाम कहीं नहीं आता। मरण जो जीवन का अनिवार्य परिणाम है, हर जगह इतना उपेक्षित रहा है कि प्रायः उसकी चर्चा भी वर्जित मानी गई है, परंतु जैन जीवन पद्धति में मृत्यु को उपेक्षणीय या तिरस्करणीय नहीं बताया गया। एक सच्चाई की सरह उसका सामना करने की शिक्षा दी गई है।
संसारी मोही प्राणी जन्म के सत्य को स्वीकार कर खुशियाँ मनाते हैं और मरण के सत्य को अस्वीकार कर शोक करते हैं, यह बड़ा आश्चर्य है। "जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः" जिसने जन्म लिया है उसका मरण अवश्यम्भावी है। आयु समाप्त होने पर मणि, मंत्र, तंत्र, ताबीज, औषधि कोई मरण से बचा नहीं सकते। अनन्तकाल तक इस जीव ने एकेन्द्रिय पर्याय में एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण किया। एक अन्तर्मुहूर्त में ६६३३६ बार लब्ध्यपर्याप्त अवस्था प्राप्त कर जन्म-मरण किया। किसी कारणवश कर्मों का लघु विपाक हुआ तो द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असैनी पंचेन्द्रिय पर्यायों में मन के बिना हितअहित, हेय-उपादेय के विचार से शून्य आत्महित के विचारविमर्श की संभावना से रहित मरण किया। किसी पुण्य के उद्देश्य से पंचेन्द्रिय हुआ तो भी मिथ्यादर्शन और पंचेन्द्रियों की विषयवासना के वश होकर मरण करता रहा। इस प्रकार प्राय: सभी पर्यायों में संक्लेशपूर्वक, उद्वेगपूर्वक, आर्त्त-रौद्र ध्यान सहित संकल्प-विकल्प पूर्वक, आकुलता सहित मरण होने से जन्म-मरण की परम्परा बढ़ती ही रही । जन्म-मरण की इस परम्परा को समाप्त करने का एक मात्र उपाय है जैन जीवनपद्धति में निर्दिष्ट सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण। शांति से धर्मध्यानपूर्वक समतामय परिणामों से कषायों को कृश करते हुए स्वेच्छा से शरीर छोड़ना ही समाधिमरण, मंगलमयमरण या मृत्यु महोत्सव है।
सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण अर्थात् सुमरण कैसे, किस विधि से, कौन उपायों से हो, उसका विस्तृत वर्णन हमारे आचार्यों ने बड़े-बड़े ग्रन्थों में किया है। शिवकोटि आचार्य विरचित भगवती आराधना प्राकृत भाषा का इसी विषय का एक महान् ग्रन्थ है। इसके संस्कृत (छायारूप) श्लोकों के माध्यम से अमितगति आचार्य ने मरणकण्डिका नामक ग्रन्थ की रचना की है। मरण का विशद वर्णन होने से इस ग्रन्थ का मरणकण्डिका नाम सार्थक है।
इस ग्रन्थ के बारह अधिकारों में सरलतम श्लोकों के माध्यम से आराधना से लेकर अंतिम आराधना के फल निजतत्त्व की प्राप्ति तक का संपूर्ण विवेचन किया गया है।
सर्वप्रथम चार आराधनाओं का वर्णन करते हुए बताया है कि ज्ञान और दर्शन का सार यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति और यथाख्यात चारित्र का सार निर्वाण की प्राप्ति है। चिरकाल तक चारों आराधनाओं का पिरतिचार पालन करने वाले मुनिराज भी मरणकाल में यदि उन आराधनाओं की विराधना करके मरते