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श्री दि. जैन महावीर चैत्यालय का नवीन निर्माण हुआ है और वेदी प्रतिष्ठा भी हुई है। जन-धन आवागमन आदि अन्य साधनविहीन अलयारी ग्राम स्थित जिनमन्दिर का जीर्णोद्धार, नवीन जिनबिम्ब की रचना, नवीन वेदी का निर्माण एवं प्रति आपके ही सफल है। श्री हि जैन धर्मशाला टोडारायसिंह का नवीनीकरण एवं अशोकनगर उदयपुर में नवीन जिनालय और श्री शिवसागर सरस्वती भवन का निर्माण आपके मार्गदर्शन का ही सुपरिणाम है। वास्तुशास्त्र के अनुसार कई जगह आपके मार्गदर्शन से परिवर्तन हुए हैं एवं स्वाध्याय भवन आदि के निर्माण हुए हैं।
श्री ब्र. सूरजबाई मु. ड्योढ़ी (जयपुर) की क्षुल्लिका दीक्षा, ब्र. मनफूलबाई (टोडारायसिंह) को आठवीं प्रतिमा, श्री कजोड़ीमल जी कामदार ( जोबनेर ) को दूसरी प्रतिमा, श्री सावित्री बाई रामगढ़ को पांचवीं प्रतिमा, श्री सोहनलालजी संगावत उदयपुर वालों की धर्मपत्नी को पति पुत्रों की उपस्थिति में गृह त्यागपूर्वक सातवीं प्रतिमा के व्रत आपके कर कमलों से प्रदान किये गये। कई श्रावक युगलों को आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत आपने प्रदान किया। अशुद्ध जल त्याग, रात्रिभोजन त्याग, जमीकंद त्याग, हिंसाजन्य सौन्दर्य-प्रसाधनों का त्याग आत्महत्या, भ्रूणहत्या करने का त्याग आदि नियम अनेक श्रावकों ने आपसे ग्रहण किये। प्रतिदिन अभिषेकपूजन, स्वाध्याय, दान (साधु प्रत्यक्ष में न हो तो घर में एक डिब्बा रखकर साधुओं का स्मरण करके उसमें दान डालना ), साधुओं के चर्यासमय को टालकर बाद में उनके स्मरणपूर्वक भावना करना कि सब साधुओं का निरन्तराय आहार हो गया होगा, बाद में स्वयं भोजन करना, इस प्रकार अनेक सरल नियमों की प्रतिज्ञा आपके पास अनेक श्रावकों ने ग्रहण की। आपकी भावना प्राय: ऐसी ही रहती थी कि प्रत्येक श्रावक को कुछ-न-कुछ संयम-नियम-त आदि से संयुक्त रहना चाहिए। बिना त्याग संयम के कल्याण नहीं है। इन्द्रियविषयों को भोगने के बाद नियम कर लेना चाहिए कि जब तक दुबारा काम में नहीं लेंगे तब तक के लिए त्याग है, जो अत्यन्त सरल नियम है।
शास्त्रसमुद्र का आलोड़न करने वाली पूज्य माताजी की आगम में अटूट आस्था रहीं । क्षुद्र भौतिक स्वार्थों के लिए सिद्धान्तों को अपने अनुकूल तोड़-मोड़ कर प्रस्तुत करने वाले आपकी दृष्टि में अक्षम्य रहे । देवशास्त्र-गुरु की अविनय अवज्ञा आपके लिए असहनीय थी। आगम-सिद्धान्त में किसी प्रकार का समझौता करने के लिए आपकी आत्मा ने कभी गवाही नहीं दी। सज्जातित्व में आपकी पूर्ण निष्ठा रही। विधवा विवाह और विजातीय विवाह आपकी दृष्टि में कथमपि शास्त्रसम्मत नहीं रहे। आचार्य सोमदेव की इस उक्ति का आप पूर्ण समर्थन करती थी
स्वकीयाः परकीयाः वा मर्यादालोपिनो नराः । नहि माननीयं तेषां तपो वा श्रुतमेव च ॥
अर्थात् स्वजन से वा परजन से, तपस्वी हो या विद्वान् हो किन्तु वह मर्यादाओं का लोप करने वाला है तो उसका कहना भी नहीं मानना चाहिए। (धर्मोद्योत प्रश्नोत्तरमाला, तृतीय संस्करण पृ. ६६ से उद्धृत ) आगम-परम्परा और गुरु-परम्परा का आप प्राण-पण से निर्वाह करती रहीं। एक शब्द भी इनके विरुद्ध यदि आता तो आपका मन क्षुब्ध हो जाता। आप उनका उत्तर प्रतीकार भी अवश्य करतीं ताकि मूल परम्परा की रक्षा हो ।