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प्रथमोलम्बः । (प्रवक्ष्यामि) कहूंगा। अत्रनीतिः ! हि) निश्चयसे (निःशेषं) सरकासब ( पीयूषं ) अमृतको ( पिवम् ) पीता हुआ (एव ) ही पुरुष (सुखायते) सुखो होत है (इति न) ऐसा नहीं किन्तु (स्वल्पमपि पिवन सुखायते) थोड़ा पीता हुआ भी सुखी होता है ।। २ ।। श्रेणिकान त्रुद्दिश्य सुधर्मोगणनायकः । यथोवाच म्याप्येतदुच्यते मोक्षलिप्प्तया ॥३॥
अन्वयार्थः-(सुधर्मः) सुधर्म नामके (गणनायकः) मगधरने (श्रेणिकपश्न ) श्रेणिक राजाके प्रश्नको (उद्दश्य) निमित्त पाकर (यथा, जैसे (उवाच) कहा है (तथा मयापि) वसे मैं भी (मोक्ष लप्पया) मोक्षकी वाञ्छ।से इम च स्त्रको ( उच्यते कहता हू ।। ३ ।। इहास्ति भारते खण्डे जम्बद्रापस्यमण्डने । मण्डलं हेमोशाभं हमाङ्गद समाह्वयम् ॥ ४ ॥ ___अन्वयार्थः ---(इह) इस संसारमें (जम्बूद्वोपस्य) जप्यूट्रोएका (मण्डन ) भूषणस्वरूप ( भारते ) भारत ( खण्डे) खण्ड में हेम. कोशाभं) स्वर्ण के खनाने के सामान है आमा निपको ऐना हे मानसमाह्वयम् ) हेम ङ्गद नामका ( मण्डलं ) देश ( अम्रि ) है ! ४ ॥ तत्र राजपुरी नाम राजधानी विराजते । राज राजपुरी स्टो बटुर्या मातृकायते ॥ ५ ॥
अन्वयार्थ:-(तत्र) उस देशमें (राजकुरी नाम) रा र पुरो ना.. मकी (राजधानी) राजाकी प्रधान नगरी ( बि जिते ) शुशोभित है (या) जो (स्रष्टुः) ब्रह्माके (राज रानपुरी सृष्टौं) कुवेरक' नगरी